भारत भूमि में ऋषियों की आदिकाल से ऋणी रही है परंतु भारत भूमि में कुछ ऋषि ऐसे भी हुए है जिन्होंने ब्रम्हत्व को अपनी तपस्या से प्राप्त किया है उन्ही में से एक ऋषि थे "कौशिक" इनका जन्म एक क्षत्रिय कुल में हुआ था जो की उस समय के प्रतापी राजा थे। आगे चलकर इन्होंने आर्यावर्त की कमान संभाली और अति लोकप्रिय राजा हुए। इसी मध्य एक समय जब जो अपनी रानियों और पुत्रो सहित भ्रमण केलिए निकले तो मार्ग में ऋषि वशिष्ठ की कुटिया देख ऋषि को प्रणाम किया तभी ऋषि ने आदर भाव से महाराज कौशिक को भोज के ये कहा और महाराज ने वो स्वीकार कर लिया। एक ऋषि की कुटिया से 56 भोग मिलने से कौशिक आश्चर्य में थे। उन्होंने इस विषय में ऋषि वशिष्ठ से पुछा तो उन्होंने सरल स्वाभाव में कहा की उनके पास स्वर्ग की देव गौ कामधेनु की पुत्री नंदिनी है जो इस प्रकार के चमत्कार अति सरलता से कर सकती है।
ऐसा सुनने के पश्चात राजा कौशिक ने उस गौ को प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की जो की ऋषि ने सीधे शब्दो में अस्वीकार कर दी।
एक ऋषि के द्वारा राजा का अपमान ऐसा सोचकर कौशिक ने नंदिनी को अपने बल केमाध्यम से प्राप्त करने का प्रयास किया तब नंदिनी ने वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर राजा की पूर्ण सेना और उनके पुत्रो को युद्ध में परास्त कर सभी को नष्ठ कर दिया और राजा को भी बंदी बना कर वशिष्ठ जी के समक्ष रख दिया। अपनी ऐसी गति देखकर और एक ब्राह्मण से पराजित होकर महाराज कौशिक को अति अपमान प्रतीत हुआ और उन्होंने इसी का प्रतिशोध लेने के लिए हिमालय की कंदराओ में जाकर भोलेनाथ की उपासना करते है। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें वर मांगने को कहते है तब वो वरदान में महादेव से युद्ध करने की कला सीखते है और धनुर्विद्या से लेकर सभी अस्त्रो और शास्त्रो की विद्या ग्रहण करते है। वरदान प्राप्त करने के बाद वो वशिष्ट जी आश्रम जाकर उन्हें युद्ध करने की चुनोती देते है जिस से दोनों के मध्य भीषण युद्ध होता है यह युद्ध अत्यंत प्रलयंकारी होता सम्पूर्ण श्रिस्ति को हिला देने बल ये युद्ध अंतिम कारण में तब पहुचता है जब गुरु वशिष्ठ जी अपने धनुष पर ब्रम्हास्त्र की पत्यांचा चढ़ा लेते है ऐसा देख देवता भी अपने लोक छोड कर उनके युद्ध को रोकने के लिए आ जाते है।
ब्रम्हास्त्र का काट केवल ब्रम्हास्त्र से किया जा सकता है परंतु यदि ब्रम्हास्त्र आपस में टकराते भी है तो भी उनकी ऊर्जा प्रलय लाने में समर्थ होती है। ऐसा भयंकर युद्ध देख कर देवता लोग दोनों से आग्रह करते है की वो अपना युद्ध श्रस्टि को विनाश से बचाने के लिए बंद कर दे। उस समय गुरु वशिष्ठ जी को विजित मान कर युद्ध को रोक दिया जाता है परंतु इस से कौशिक जी का क्रोध और बढ़ जाता है और वो यह सोचने लगते है की एक ब्राह्मण की योग शक्तियों के समक्ष इस क्षत्रिय देह का कोई सामर्थ्य नहीं है इस से कुपित होकर वो फिर से हिमालय की कंदराओ में जाकर अन्न का त्याग कर कंद मूल का सेवन कर वर्षो तक तपस्या करते है और इसके बाद उन्हें राजश्री का पद प्राप्त होता है ।
परंतु अभी भी उन्हें संतुस्टी प्राप्त नहीं होती। वे अपनी ज्ञान मीमांसा को बढ़ने के लिए तप ने निरन्तर लगे रहते है जिससे की उन्हें वाशिष्ट जी से इंच पद प्राप्त हो और वे अपने अपना का प्रतिशोध ले सकें परंतु जब तक ऋषि के मन में अहंकार रहता है तब तक वो ब्रह्मज्ञानी नहीं बन सकता इस बात से कौशिक जी अवगत नहीं थे।
उसी काल में एक राजा हुए जिनका नाम त्रिशंकु हुआ और उन्होंने जीवित स्वर्ग जाने की इच्छा सभी ऋषियों के आगे रखी परंतु कोई भी ऋषि ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुआ तब त्रिशंकु ने गुरु वशिष्ठ से अपनी ये इच्छा कही और गुरु ने यह कह मना कर दिया की ये प्रकृति के विरुद्ध है। त्रिशंकु को यह ज्ञात था की गुरु वशिष्ठ के पुट भी उठे ही ज्ञानी है तब उसने यही याचना उनके पुत्रो से कही। उनके पुत्रो ने इसे अपने पिता का अपमान समझ कर त्रिशंकु को चांडाल होने का शाप दे दिया।
इस सभ के बाद त्रिशंकु ने यही याचना ऋषि विश्वामित्र से की तब विश्वामित्र ने उनकी इच्छा पूरी करने का वचन दिया और यज्ञ केलिए सभी ब्राह्मणों और पुरोहितो को आमन्त्रित किया इसमें उन्होंने गुरु वशिष्ठ के पुत्रो को भी आमन्त्रित किया परंतु उन्होंने यह कह कर निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया की जिस यज्ञ का क्षत्रिय पुरोहित कर और जो यज्ञ के चांडाल की इच्छा पूर्ती के लिए हो रहा हो हम नहीं आएंगे।
ऐसा सुनकर विश्वामित्र ने उन्हें तभी उन्हें शाप देकर भस्म कर दिया ऐसा देख बाकि सभी पुरोहित तथा ब्राह्मण भय वश उनके यज्ञ में सहायता देने आ पहुचे विश्वामित्र द्वारा अति घनघोर यज्ञ का आयोजन किया गया यज्ञ के बाद देवताओ का आह्वान किया गया लेकिन देवता नहीं आये तब ऋषि ने अपने तबबल से त्रिशंकु को सहशरीर ही स्वर्ग की तरफ भेज दिया।
एक ऋषि के द्वारा राजा का अपमान ऐसा सोचकर कौशिक ने नंदिनी को अपने बल केमाध्यम से प्राप्त करने का प्रयास किया तब नंदिनी ने वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर राजा की पूर्ण सेना और उनके पुत्रो को युद्ध में परास्त कर सभी को नष्ठ कर दिया और राजा को भी बंदी बना कर वशिष्ठ जी के समक्ष रख दिया। अपनी ऐसी गति देखकर और एक ब्राह्मण से पराजित होकर महाराज कौशिक को अति अपमान प्रतीत हुआ और उन्होंने इसी का प्रतिशोध लेने के लिए हिमालय की कंदराओ में जाकर भोलेनाथ की उपासना करते है। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें वर मांगने को कहते है तब वो वरदान में महादेव से युद्ध करने की कला सीखते है और धनुर्विद्या से लेकर सभी अस्त्रो और शास्त्रो की विद्या ग्रहण करते है। वरदान प्राप्त करने के बाद वो वशिष्ट जी आश्रम जाकर उन्हें युद्ध करने की चुनोती देते है जिस से दोनों के मध्य भीषण युद्ध होता है यह युद्ध अत्यंत प्रलयंकारी होता सम्पूर्ण श्रिस्ति को हिला देने बल ये युद्ध अंतिम कारण में तब पहुचता है जब गुरु वशिष्ठ जी अपने धनुष पर ब्रम्हास्त्र की पत्यांचा चढ़ा लेते है ऐसा देख देवता भी अपने लोक छोड कर उनके युद्ध को रोकने के लिए आ जाते है।
ब्रम्हास्त्र का काट केवल ब्रम्हास्त्र से किया जा सकता है परंतु यदि ब्रम्हास्त्र आपस में टकराते भी है तो भी उनकी ऊर्जा प्रलय लाने में समर्थ होती है। ऐसा भयंकर युद्ध देख कर देवता लोग दोनों से आग्रह करते है की वो अपना युद्ध श्रस्टि को विनाश से बचाने के लिए बंद कर दे। उस समय गुरु वशिष्ठ जी को विजित मान कर युद्ध को रोक दिया जाता है परंतु इस से कौशिक जी का क्रोध और बढ़ जाता है और वो यह सोचने लगते है की एक ब्राह्मण की योग शक्तियों के समक्ष इस क्षत्रिय देह का कोई सामर्थ्य नहीं है इस से कुपित होकर वो फिर से हिमालय की कंदराओ में जाकर अन्न का त्याग कर कंद मूल का सेवन कर वर्षो तक तपस्या करते है और इसके बाद उन्हें राजश्री का पद प्राप्त होता है ।
परंतु अभी भी उन्हें संतुस्टी प्राप्त नहीं होती। वे अपनी ज्ञान मीमांसा को बढ़ने के लिए तप ने निरन्तर लगे रहते है जिससे की उन्हें वाशिष्ट जी से इंच पद प्राप्त हो और वे अपने अपना का प्रतिशोध ले सकें परंतु जब तक ऋषि के मन में अहंकार रहता है तब तक वो ब्रह्मज्ञानी नहीं बन सकता इस बात से कौशिक जी अवगत नहीं थे।
उसी काल में एक राजा हुए जिनका नाम त्रिशंकु हुआ और उन्होंने जीवित स्वर्ग जाने की इच्छा सभी ऋषियों के आगे रखी परंतु कोई भी ऋषि ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुआ तब त्रिशंकु ने गुरु वशिष्ठ से अपनी ये इच्छा कही और गुरु ने यह कह मना कर दिया की ये प्रकृति के विरुद्ध है। त्रिशंकु को यह ज्ञात था की गुरु वशिष्ठ के पुट भी उठे ही ज्ञानी है तब उसने यही याचना उनके पुत्रो से कही। उनके पुत्रो ने इसे अपने पिता का अपमान समझ कर त्रिशंकु को चांडाल होने का शाप दे दिया।
इस सभ के बाद त्रिशंकु ने यही याचना ऋषि विश्वामित्र से की तब विश्वामित्र ने उनकी इच्छा पूरी करने का वचन दिया और यज्ञ केलिए सभी ब्राह्मणों और पुरोहितो को आमन्त्रित किया इसमें उन्होंने गुरु वशिष्ठ के पुत्रो को भी आमन्त्रित किया परंतु उन्होंने यह कह कर निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया की जिस यज्ञ का क्षत्रिय पुरोहित कर और जो यज्ञ के चांडाल की इच्छा पूर्ती के लिए हो रहा हो हम नहीं आएंगे।
ऐसा सुनकर विश्वामित्र ने उन्हें तभी उन्हें शाप देकर भस्म कर दिया ऐसा देख बाकि सभी पुरोहित तथा ब्राह्मण भय वश उनके यज्ञ में सहायता देने आ पहुचे विश्वामित्र द्वारा अति घनघोर यज्ञ का आयोजन किया गया यज्ञ के बाद देवताओ का आह्वान किया गया लेकिन देवता नहीं आये तब ऋषि ने अपने तबबल से त्रिशंकु को सहशरीर ही स्वर्ग की तरफ भेज दिया।
इंद्र ने यह कहकर त्रिशंकु को स्वर्ग में आने की अनुमति नहीं दी की वह शापित है।
इस से क्रोधित होकर विश्वामित्र ने अपना वचन पूरा करने के लिए नए स्वर्ग का निर्माण किया ऐसा देखकर इंद्र को अपनी सत्ता खतरे में दिखने लगी तब इंद्र ने ऋषि कौशिक से ऐसा न करने की याचना की और कहा की ऐसा करने से पृथ्वी के संतुलन को खतरा है।
ऋषि कौशिक ने इंद्र को यह आश्वासन दिया की इस से ऐसा कुछ नहीं होगा और देवताओ की सत्ता को भी कोई हानि नहीं होगी वह केवल अपना वचन पूरा करने के लिए ऐसा कर रहे है कह कर उन्होंने इंद्र को आश्वस्त किया और त्रिशंकु को अपने वचन के अनुसार नए स्वर्ग का निर्माण कर उसका स्वामित्व दिया।
इसके बाद ऋषि कौशिक ने फिर से ब्रह्मा जी का तप करना आरम्भ किया और अपने ब्रह्म ऋषि होने की इच्छा को पूरा किया। ब्रह्माजी ने उन्हें ब्रह्मऋषि के साथ साथ ॐ तथा गायत्री मंत्र का भी ज्ञान दिया। अपने घनघोर तप से ऋषि कौशिक ने अपने क्रोध तथा अहंकार पर विजय प्राप्त की और इसके बाद ही ऋषि वशिष्ठ ने इन्हें ब्राह्मण रूप में अभिनन्दन किया तथा विश्वामित्र का नाम दिया।
इसके बाद विश्वामित्र ने शस्त्रो का त्याग कर शास्त्रो को अपना लिया तथा आश्रम में शिक्षा देनी आरम्भ की एक समय जब विश्वमित्र को आर्यावर्त को फिर से एक बड़ा और कुशल राजा देने की इच्छा हुई तब वो फिर से तपस्या में लीं हुए तब इंद्रा ने उनके तप को अपने से तेजस्वी राजा के शाशन से ईष्या कर स्वर्ग की अप्सरा मेनका को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा मेनका ने अपनी सुन्दरता से ऋषि को लुभावित किया और उनके साथ सम्भोग किया इसके फल से उनकी एक पुत्री पैदा हुई ऋषि के तेज से वह अत्यंत ही गुणवान हुई और आगे चलकर उस कन्या ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम भारत हुआ और जिसने अपने शाशन से यह सिद्ध कर दिया की ऋषि की तपस्या भंग नहीं हुई थी उसके विपरीत वह उन्ही की इच्छा थी।
श्री राम की शिक्षा
जब विश्वामित्र ने शस्त्रो का त्याग किया उसी समय से राज्य से राक्षसों का प्रभुत्व बढ़ने लगा और सामान्य जानो को अत्यंत ही दुखो का सामना करना पद रहा था। एक समय गुरु विश्वामित्र के एक शिष्य को राक्षसी तड़का ने अत्यंत ही निर्मम तरह से नोच खसोट कर मृत्यु से आलंगित कराया यह देख विश्वामित्र स्वयं से घृणित होने लगे। विश्वामित्र को यह लगने लगा की वो अत्यंत ही दिव्य अस्त्रो के ज्ञात होने के पश्चात भी कुछ नहीं कर सकते थे।यदि राजा ही निष्क्रिय हो तथा उसे प्रजा के किसी भी दुख का ज्ञान न हो तो असामाजिक तत्वों का बोलबाला होला स्वाभाविक है। विश्वामित्र ने ग्रामीणों की ऐसी हालात को देख कर उन्हें सबल बनाने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी परंतु इस से कोई अत्यंत प्रभाव नहीं बनने वाला था। ऋषि विश्वामित्र ने अस्त्रो का त्याग कर गुरु के पद को प्राप्त किया था तथा वह यह भी जानते थे की राजा दशरथ अत्यंत ही दयालु राजा है तथा राज्य का प्रसार अधिक होने के कारण वह सब जगहों पर धयान देने में असमर्थ है तथा प्रजा का कोई भी व्यक्ति रावण के दैत्यों के कारण से राजा तक अपने कष्टो को पहुचने में असमर्थ हो गया था । इस कारण विश्वामित्र ने स्वयं ही राजा से वार्तालाप के लिए वहाँ जाना उचित समझा।
राज्य में विश्वामित्र जैसे प्रतापी ऋषि के आने का समाचार सुनकर महाराज ने पालक पावड़े बिछा दिए तथा अपना सिंहासन छोड़कर ऋषि को स्थान दिया। अतिथि भाव देखकर ऋषि अत्यंत प्रसन्न हुए और राजा को सभी बातो का विवरण दिया रावण के अनुचरो द्वारा प्रजा की अत्यंत ही दूर्दश हालात का विवरण सुनकर महाराज की आँखे भर आई तथा महाराज ने इसके उपाय के विषय में जब ऋषि से पुछा तो उनके मुख से केवल एक ही शब्द निकला "राम"
ऐसा सुनकर महाराज को पीड़ा तो हुई परंतु राजधर्म और श्री राम की शिक्षा के विषय में सोचकर उन्होंने श्री राम को शिक्षित करने के लिए परम प्रतापी क्षत्रिय राजा वर्तमान ब्राह्मण आचार्य को समर्पित किया।
आश्रम में आते ही श्री राम का पहला प्रश्न गुरु से ये था की जब आप इतने पराक्रमी है और सभी अस्त्रो तथा शास्त्रो के ज्ञात है तो आप ही इन सभी राक्षसों का अंत कर राज्य में शांति की स्थापना क्यों नहीं करते ?
इसका उत्तर देते हुए ऋषि ने कहा की ब्राह्मण तपस्या कर तेज एकत्रित करता है समाज कल्याण के लिए शक्ति का होना और उसका सही प्रकार से वितरण करना ही समाज कल्याण है यदि यही शक्तिया किस राक्षस को दे दी जाये तो समाज का ह्रास ही होगा इसी लिए गुरुजनो को शक्ति का प्रयोग युद्ध के लिए वर्जित है।
ऋषि के आश्रम में रहकर श्री राम बाल्यकाल से ही अत्यंत निर्भिक थे उसके बाद विश्वामित्र से अस्त्रो और शास्त्रो का ज्ञान पाकर उनके पराक्रम में अत्यंत ही तेज शुशोभित हो गया था सभी प्रकार के अस्त्रो का होना ही आधे भय की मुक्ति है तथा अस्त्रो का प्रयोग किस समय किस व्यक्ति पर करना है ये भी एक युक्ति है जो की ब्राह्मण ने उन्हें सीखा दी थी उसके बाद एक के बाद एक राक्षस का अंत कर उन सभी अस्त्रो का प्रयोग भी हो चूका था जिस से की उनके मन में अस्त्रो को लेकर कोई भी शंका नहीं बची थी।
महाराज दशरथ ने भी जब उनके इस पराक्रम के विषय में सुना तब वो भी हर्षित होकर ऋषि के समक्ष नतमस्तक हो गए और रामराज्य की कल्पना कर अत्यंत ही आनंदित हो उठे।
श्री राम ने गुरु से शिक्षा लेकर अपनी प्रजा को भय मुक्त किया तथा राज्य में शांति की स्थापना की।
रावण ने अपने सभी राक्षसों को वापस बुला लिया तथा अपने राज्य को लंका तक ही सिमित कर लिया।
भगवान् भोलेनाथ की कृपा से प्राप्त सोने की लंका में उसे कोई भय नहीं था तथा उसे भेद पाना भी संभव नहीं था।
श्री राम की शिक्षा
जब विश्वामित्र ने शस्त्रो का त्याग किया उसी समय से राज्य से राक्षसों का प्रभुत्व बढ़ने लगा और सामान्य जानो को अत्यंत ही दुखो का सामना करना पद रहा था। एक समय गुरु विश्वामित्र के एक शिष्य को राक्षसी तड़का ने अत्यंत ही निर्मम तरह से नोच खसोट कर मृत्यु से आलंगित कराया यह देख विश्वामित्र स्वयं से घृणित होने लगे। विश्वामित्र को यह लगने लगा की वो अत्यंत ही दिव्य अस्त्रो के ज्ञात होने के पश्चात भी कुछ नहीं कर सकते थे।यदि राजा ही निष्क्रिय हो तथा उसे प्रजा के किसी भी दुख का ज्ञान न हो तो असामाजिक तत्वों का बोलबाला होला स्वाभाविक है। विश्वामित्र ने ग्रामीणों की ऐसी हालात को देख कर उन्हें सबल बनाने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी परंतु इस से कोई अत्यंत प्रभाव नहीं बनने वाला था। ऋषि विश्वामित्र ने अस्त्रो का त्याग कर गुरु के पद को प्राप्त किया था तथा वह यह भी जानते थे की राजा दशरथ अत्यंत ही दयालु राजा है तथा राज्य का प्रसार अधिक होने के कारण वह सब जगहों पर धयान देने में असमर्थ है तथा प्रजा का कोई भी व्यक्ति रावण के दैत्यों के कारण से राजा तक अपने कष्टो को पहुचने में असमर्थ हो गया था । इस कारण विश्वामित्र ने स्वयं ही राजा से वार्तालाप के लिए वहाँ जाना उचित समझा।
राज्य में विश्वामित्र जैसे प्रतापी ऋषि के आने का समाचार सुनकर महाराज ने पालक पावड़े बिछा दिए तथा अपना सिंहासन छोड़कर ऋषि को स्थान दिया। अतिथि भाव देखकर ऋषि अत्यंत प्रसन्न हुए और राजा को सभी बातो का विवरण दिया रावण के अनुचरो द्वारा प्रजा की अत्यंत ही दूर्दश हालात का विवरण सुनकर महाराज की आँखे भर आई तथा महाराज ने इसके उपाय के विषय में जब ऋषि से पुछा तो उनके मुख से केवल एक ही शब्द निकला "राम"
ऐसा सुनकर महाराज को पीड़ा तो हुई परंतु राजधर्म और श्री राम की शिक्षा के विषय में सोचकर उन्होंने श्री राम को शिक्षित करने के लिए परम प्रतापी क्षत्रिय राजा वर्तमान ब्राह्मण आचार्य को समर्पित किया।
आश्रम में आते ही श्री राम का पहला प्रश्न गुरु से ये था की जब आप इतने पराक्रमी है और सभी अस्त्रो तथा शास्त्रो के ज्ञात है तो आप ही इन सभी राक्षसों का अंत कर राज्य में शांति की स्थापना क्यों नहीं करते ?
इसका उत्तर देते हुए ऋषि ने कहा की ब्राह्मण तपस्या कर तेज एकत्रित करता है समाज कल्याण के लिए शक्ति का होना और उसका सही प्रकार से वितरण करना ही समाज कल्याण है यदि यही शक्तिया किस राक्षस को दे दी जाये तो समाज का ह्रास ही होगा इसी लिए गुरुजनो को शक्ति का प्रयोग युद्ध के लिए वर्जित है।
ऋषि के आश्रम में रहकर श्री राम बाल्यकाल से ही अत्यंत निर्भिक थे उसके बाद विश्वामित्र से अस्त्रो और शास्त्रो का ज्ञान पाकर उनके पराक्रम में अत्यंत ही तेज शुशोभित हो गया था सभी प्रकार के अस्त्रो का होना ही आधे भय की मुक्ति है तथा अस्त्रो का प्रयोग किस समय किस व्यक्ति पर करना है ये भी एक युक्ति है जो की ब्राह्मण ने उन्हें सीखा दी थी उसके बाद एक के बाद एक राक्षस का अंत कर उन सभी अस्त्रो का प्रयोग भी हो चूका था जिस से की उनके मन में अस्त्रो को लेकर कोई भी शंका नहीं बची थी।
महाराज दशरथ ने भी जब उनके इस पराक्रम के विषय में सुना तब वो भी हर्षित होकर ऋषि के समक्ष नतमस्तक हो गए और रामराज्य की कल्पना कर अत्यंत ही आनंदित हो उठे।
श्री राम ने गुरु से शिक्षा लेकर अपनी प्रजा को भय मुक्त किया तथा राज्य में शांति की स्थापना की।
रावण ने अपने सभी राक्षसों को वापस बुला लिया तथा अपने राज्य को लंका तक ही सिमित कर लिया।
भगवान् भोलेनाथ की कृपा से प्राप्त सोने की लंका में उसे कोई भय नहीं था तथा उसे भेद पाना भी संभव नहीं था।