Saturday, 25 February 2017

ऋषि कौशिक : अपने तपोबल से ब्रम्हत्व को प्राप्त करने वाले

भारत भूमि में ऋषियों की आदिकाल से ऋणी रही है परंतु भारत भूमि में कुछ ऋषि ऐसे भी हुए है जिन्होंने ब्रम्हत्व को अपनी तपस्या से प्राप्त किया है उन्ही में से एक ऋषि थे "कौशिक" इनका जन्म एक क्षत्रिय कुल में हुआ था जो की उस समय के प्रतापी राजा थे। आगे चलकर इन्होंने आर्यावर्त की कमान संभाली और अति लोकप्रिय राजा हुए। इसी मध्य एक समय जब जो अपनी रानियों और पुत्रो सहित भ्रमण केलिए निकले तो मार्ग में ऋषि वशिष्ठ की कुटिया देख ऋषि को प्रणाम किया तभी ऋषि ने आदर भाव से महाराज कौशिक को भोज के ये कहा और महाराज ने वो स्वीकार कर लिया। एक ऋषि की कुटिया से 56 भोग मिलने से कौशिक आश्चर्य में थे। उन्होंने इस विषय में ऋषि वशिष्ठ से पुछा तो उन्होंने सरल स्वाभाव में कहा की उनके पास स्वर्ग की देव गौ कामधेनु की पुत्री नंदिनी है जो इस प्रकार के चमत्कार अति सरलता से कर सकती है।
ऐसा सुनने के पश्चात राजा कौशिक ने उस गौ को प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की जो की ऋषि ने सीधे शब्दो में अस्वीकार कर दी।
एक ऋषि के द्वारा राजा का अपमान ऐसा सोचकर कौशिक ने नंदिनी को अपने बल केमाध्यम से प्राप्त करने का प्रयास किया तब नंदिनी ने वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर राजा की पूर्ण सेना और उनके पुत्रो को युद्ध में परास्त कर सभी को नष्ठ कर दिया और राजा को भी बंदी बना कर वशिष्ठ जी के समक्ष रख दिया। अपनी ऐसी गति देखकर और एक ब्राह्मण से पराजित होकर महाराज कौशिक को अति अपमान प्रतीत हुआ और उन्होंने इसी का प्रतिशोध लेने के लिए हिमालय की कंदराओ में जाकर भोलेनाथ की उपासना करते है। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें वर मांगने को कहते है तब वो वरदान में महादेव से युद्ध करने की कला सीखते है और धनुर्विद्या से लेकर सभी अस्त्रो और शास्त्रो की विद्या ग्रहण करते है। वरदान प्राप्त करने के बाद वो वशिष्ट जी आश्रम जाकर उन्हें युद्ध करने की चुनोती देते है जिस से दोनों के मध्य भीषण युद्ध होता है यह युद्ध अत्यंत प्रलयंकारी होता सम्पूर्ण श्रिस्ति को हिला देने बल ये युद्ध अंतिम कारण में तब पहुचता है जब गुरु वशिष्ठ जी अपने धनुष पर ब्रम्हास्त्र की पत्यांचा चढ़ा लेते है ऐसा देख देवता भी अपने लोक छोड कर उनके युद्ध को रोकने के लिए आ जाते है।
ब्रम्हास्त्र का काट केवल ब्रम्हास्त्र से किया जा सकता है परंतु यदि ब्रम्हास्त्र आपस में टकराते भी है तो भी उनकी ऊर्जा प्रलय लाने में समर्थ होती है। ऐसा भयंकर युद्ध देख कर देवता लोग दोनों से आग्रह करते है की वो अपना युद्ध श्रस्टि को विनाश से बचाने के लिए बंद कर दे। उस समय गुरु वशिष्ठ जी को विजित मान कर युद्ध को रोक दिया जाता है परंतु इस से कौशिक जी का क्रोध और बढ़ जाता है और वो यह सोचने लगते है की एक ब्राह्मण की योग शक्तियों के समक्ष इस क्षत्रिय देह का कोई सामर्थ्य नहीं है इस से कुपित होकर वो फिर से हिमालय की कंदराओ में जाकर अन्न का त्याग कर कंद मूल का सेवन कर वर्षो तक तपस्या करते है और इसके बाद उन्हें राजश्री का पद प्राप्त होता है ।
परंतु अभी भी उन्हें संतुस्टी प्राप्त नहीं होती। वे अपनी ज्ञान मीमांसा को बढ़ने के लिए तप ने निरन्तर लगे रहते है जिससे की उन्हें वाशिष्ट जी से इंच पद प्राप्त हो और वे अपने अपना का प्रतिशोध ले सकें परंतु जब तक ऋषि के मन में अहंकार रहता है तब तक वो ब्रह्मज्ञानी नहीं बन सकता इस बात से कौशिक जी अवगत नहीं थे।
उसी काल में एक राजा हुए जिनका नाम त्रिशंकु हुआ और उन्होंने जीवित स्वर्ग जाने की इच्छा सभी ऋषियों के आगे रखी परंतु  कोई भी ऋषि ऐसा करने के लिए  तैयार नहीं हुआ तब त्रिशंकु ने गुरु वशिष्ठ से अपनी ये इच्छा कही और गुरु ने यह कह  मना कर दिया की ये प्रकृति के विरुद्ध है। त्रिशंकु को यह ज्ञात था की गुरु वशिष्ठ के पुट भी उठे ही ज्ञानी है तब उसने यही याचना उनके पुत्रो से कही।  उनके पुत्रो ने इसे अपने पिता का अपमान समझ कर त्रिशंकु को चांडाल होने का शाप दे दिया।
इस सभ के बाद त्रिशंकु ने यही याचना ऋषि विश्वामित्र से की तब विश्वामित्र ने उनकी इच्छा पूरी करने का वचन दिया और यज्ञ केलिए सभी ब्राह्मणों और पुरोहितो को आमन्त्रित किया इसमें उन्होंने गुरु वशिष्ठ के पुत्रो  को भी आमन्त्रित किया परंतु उन्होंने यह कह कर निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया की जिस यज्ञ का  क्षत्रिय पुरोहित कर  और जो यज्ञ के चांडाल की इच्छा पूर्ती के लिए हो रहा हो  हम नहीं आएंगे।
ऐसा सुनकर  विश्वामित्र ने उन्हें तभी उन्हें शाप देकर भस्म कर दिया ऐसा देख बाकि सभी पुरोहित तथा ब्राह्मण भय वश उनके यज्ञ में सहायता देने आ पहुचे विश्वामित्र द्वारा अति घनघोर यज्ञ का आयोजन किया गया यज्ञ के बाद देवताओ का आह्वान किया गया लेकिन देवता नहीं आये तब ऋषि ने अपने तबबल से त्रिशंकु को सहशरीर ही स्वर्ग की तरफ भेज दिया।
इंद्र ने यह कहकर त्रिशंकु  को स्वर्ग में आने की अनुमति नहीं दी की वह शापित है। 
इस से क्रोधित होकर विश्वामित्र ने अपना वचन पूरा करने के लिए नए स्वर्ग का निर्माण किया ऐसा देखकर इंद्र  को अपनी सत्ता खतरे में दिखने लगी तब इंद्र ने ऋषि कौशिक से ऐसा न करने की याचना की और कहा की ऐसा करने से पृथ्वी के संतुलन को खतरा है। 
ऋषि कौशिक ने इंद्र को यह आश्वासन दिया की इस से ऐसा कुछ नहीं होगा और देवताओ की सत्ता को भी कोई हानि नहीं होगी वह केवल अपना वचन पूरा करने के लिए ऐसा कर रहे है कह कर उन्होंने इंद्र को आश्वस्त किया और त्रिशंकु को अपने वचन के अनुसार नए स्वर्ग का निर्माण कर उसका स्वामित्व दिया। 
इसके बाद ऋषि कौशिक ने फिर से ब्रह्मा जी का तप करना आरम्भ किया और अपने ब्रह्म ऋषि होने की इच्छा को पूरा किया। ब्रह्माजी ने उन्हें ब्रह्मऋषि के साथ साथ ॐ तथा गायत्री मंत्र का भी ज्ञान दिया। अपने घनघोर तप से ऋषि कौशिक ने अपने क्रोध तथा अहंकार पर विजय प्राप्त की और इसके बाद ही ऋषि वशिष्ठ ने इन्हें ब्राह्मण रूप में अभिनन्दन किया तथा विश्वामित्र का नाम दिया। 

इसके बाद विश्वामित्र ने शस्त्रो का त्याग कर शास्त्रो को अपना लिया तथा आश्रम में शिक्षा देनी आरम्भ की एक समय जब विश्वमित्र को आर्यावर्त को  फिर से एक बड़ा और कुशल राजा देने की इच्छा हुई तब वो फिर से तपस्या में लीं हुए तब इंद्रा ने उनके तप को अपने से तेजस्वी राजा के शाशन से ईष्या कर स्वर्ग की अप्सरा मेनका को उनकी तपस्या भंग  करने के लिए भेजा मेनका ने अपनी सुन्दरता से ऋषि को लुभावित किया और उनके साथ सम्भोग किया इसके फल से उनकी एक पुत्री पैदा हुई ऋषि के तेज से वह अत्यंत ही गुणवान हुई और आगे चलकर उस कन्या ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम भारत हुआ और जिसने अपने शाशन से यह सिद्ध कर दिया की ऋषि की तपस्या भंग नहीं हुई थी उसके विपरीत वह उन्ही की इच्छा थी।

श्री राम की शिक्षा 

जब विश्वामित्र ने शस्त्रो का त्याग किया उसी समय से राज्य से राक्षसों का प्रभुत्व बढ़ने लगा और सामान्य जानो को अत्यंत ही दुखो का सामना करना पद रहा था। एक समय गुरु विश्वामित्र के एक शिष्य को राक्षसी तड़का ने अत्यंत ही निर्मम तरह से नोच खसोट कर मृत्यु से आलंगित कराया यह देख विश्वामित्र स्वयं से घृणित होने लगे।  विश्वामित्र को यह लगने लगा की वो अत्यंत ही दिव्य अस्त्रो के ज्ञात होने के पश्चात भी कुछ नहीं कर सकते थे।यदि राजा ही निष्क्रिय हो तथा उसे प्रजा के किसी भी दुख का ज्ञान न हो तो असामाजिक तत्वों का बोलबाला होला स्वाभाविक है। विश्वामित्र ने ग्रामीणों की ऐसी हालात को देख कर उन्हें सबल बनाने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी परंतु इस से कोई अत्यंत प्रभाव नहीं बनने वाला था। ऋषि विश्वामित्र ने अस्त्रो का त्याग कर गुरु के पद को प्राप्त किया था तथा वह यह भी जानते थे की राजा दशरथ अत्यंत ही दयालु राजा है तथा राज्य का प्रसार अधिक होने के कारण वह सब जगहों पर धयान  देने में असमर्थ है तथा प्रजा का कोई भी व्यक्ति रावण के दैत्यों के कारण से राजा तक अपने कष्टो को पहुचने में असमर्थ हो गया था ।  इस कारण विश्वामित्र ने स्वयं ही राजा से वार्तालाप के लिए वहाँ जाना उचित समझा।
राज्य में विश्वामित्र जैसे प्रतापी ऋषि के आने का समाचार सुनकर महाराज ने पालक पावड़े बिछा दिए तथा अपना सिंहासन छोड़कर ऋषि को स्थान दिया। अतिथि भाव देखकर ऋषि अत्यंत प्रसन्न हुए और राजा को सभी बातो का विवरण दिया रावण के अनुचरो द्वारा प्रजा की अत्यंत ही दूर्दश हालात का विवरण सुनकर महाराज की आँखे भर आई तथा महाराज ने इसके उपाय के विषय में जब ऋषि से पुछा तो उनके मुख से केवल एक ही शब्द निकला "राम"
ऐसा सुनकर महाराज को पीड़ा तो हुई परंतु राजधर्म और श्री राम की शिक्षा के विषय में सोचकर उन्होंने श्री राम को शिक्षित करने के लिए परम प्रतापी क्षत्रिय राजा वर्तमान ब्राह्मण आचार्य को समर्पित किया।
आश्रम में आते ही श्री राम का पहला प्रश्न गुरु से ये था की जब आप इतने पराक्रमी है और सभी अस्त्रो तथा शास्त्रो के ज्ञात है तो आप ही इन सभी राक्षसों का अंत कर राज्य में शांति की स्थापना क्यों नहीं करते ?
इसका उत्तर देते हुए ऋषि ने कहा की ब्राह्मण तपस्या कर  तेज एकत्रित करता है समाज कल्याण के लिए शक्ति का होना और उसका सही प्रकार से वितरण करना ही समाज कल्याण है यदि यही शक्तिया किस राक्षस को दे दी जाये तो समाज का ह्रास ही होगा इसी लिए गुरुजनो को शक्ति का प्रयोग युद्ध के लिए वर्जित है।
ऋषि के आश्रम में रहकर श्री राम बाल्यकाल से ही अत्यंत निर्भिक थे उसके बाद विश्वामित्र से अस्त्रो और शास्त्रो का ज्ञान पाकर उनके पराक्रम में अत्यंत ही तेज शुशोभित हो गया था सभी प्रकार के अस्त्रो का होना ही आधे भय की मुक्ति है तथा अस्त्रो का प्रयोग किस समय किस व्यक्ति पर करना है ये भी एक युक्ति है जो की ब्राह्मण ने उन्हें सीखा दी थी उसके बाद एक के बाद एक राक्षस का अंत कर उन सभी अस्त्रो का प्रयोग भी हो चूका था जिस से की उनके मन में अस्त्रो को लेकर कोई भी शंका नहीं बची थी।
महाराज दशरथ ने भी जब उनके इस पराक्रम के विषय में सुना तब वो भी हर्षित होकर ऋषि के समक्ष नतमस्तक हो गए और रामराज्य की कल्पना कर अत्यंत ही आनंदित हो उठे।
श्री राम ने गुरु से शिक्षा लेकर अपनी प्रजा को भय मुक्त किया तथा राज्य में शांति की स्थापना की।
रावण ने अपने सभी राक्षसों को वापस बुला लिया तथा अपने राज्य को लंका तक ही सिमित कर लिया।
भगवान् भोलेनाथ की कृपा से प्राप्त सोने की लंका में उसे कोई भय नहीं था तथा उसे भेद पाना भी संभव नहीं था।

Saturday, 18 February 2017

दानवीर कर्ण


कुंती के ज्येष्ठ पुत्र कर्ण ने यद्यपि अपना सम्पूर्ण जीवन ये लांछन झेलते हुए निभाया की वो सूत पुत्र है परंतु उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को ये सुनते हुए भी व्यतीत किया की उनके जितना महान दानी भी कोई नहीं है।
इस श्रिस्टी में 2 ही राजाओ ने भगवान् को दान स्वरुप कुछ दिया है उनमे से एक थे राजा बलि और दूसरे थे अंगराज कर्ण।
कर्ण ने दान देना अपनी दिनचर्या बना लिया था वो प्रत्येक दिन सुबह उठते और नदी में स्नान  सूर्यदेव को अर्ध देकर जो भी उनके सम्मुख आता उसे मुह माँगा दान देते।
जब महाभारत का भीषण युद्ध चल रहा था उस समय पर भी कुछ ऐसा ही हुआ।
एक रात सूर्यदेव ने अंगराज को दर्शन दिए और बताया की वो ही उनके पिता है और उनका अंश है इसी कारन वो यह बताने आये थे की कल सुबह जब तुम दिनचर्या की तरह दान देने जाओगे तो देवराज इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण कर तुम्हरे सम्मुख आएंगे और तुमसे तुम्हारे कवच और कुंडल मांग लेंगे तुम पहले ही सचेत रहना और उन्हें ये मत देना।
तब कर्ण ने कहा की हे पितादेव मैंने अपने सारे जीवन में जिसने जो माँगा उसे वो दिया है और यदि कल में ऐसा करता हु तो मेरे द्वारा दिया गया सारा दान निष्फल हो जायेगा आने वाला समय मुझे काया की नजरो से देखेगा और कहेगा की ये वही सूर्यपुत्र कर्ण है जिसने अपनी मृत्यु के भय से दान नही किया।
ऐसा सुनकर सूर्यदेव कहने लगे पुत्र मेरा कार्य था तुम्हे छल से सचेत करना अब तुम्हारी इच्छा है आगे की सोचना।
अगली प्रातः दिनचर्या के अनुसार जब कर्ण कुंड से बहार आये तब इंद्र ब्राह्मण वेश में आकर दान की याचना करने लगे कर्ण ने पुछा की क्या चहिये ब्राह्मण तब उन्होंने कर्ण के कवच और कुंडल की माग की और कारण ने अपनी कटार से अपने शरीर को लहूलुहान कर उन्हें कवच और कुंडल दे दिए।
इस से प्रसन्न होकर इंद्रा ने अपना असली रूप दिखाया और कहा की तुमने ज्ञात होते हुए भी मुझे दान दिया इस कारण में तुमसे प्रसन्न हुआ हु तुम कोई वरदान मांगो।
कर्ण ने वरदान लेने से इनकार किया और कहा की दान के बदले में कुछ लेने से दान का अपमान होगा।
तब इंद्रा ने कहा की दान तुमने ब्राह्मण को दिया था वरदान तुम्हे इंद्र दे रहा है तो तुम वरदान स्वरुप कुछ मागो।
इसपर कर्ण ने उनसे शक्ति अस्त्र माँगा और इंद्र ने अस्त्र देते हुए कहा की इसका प्रयोग कम केवल 1 बार ही कर सकते हो उसके जवाब में कर्ण ने कहा की मुझे दूसरी बार इसकी आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। 

Saturday, 11 February 2017

दानवीर कर्ण से पूर्व


महाभारत युद्ध से शायद ही कोई न परिचित हो. कुरुक्षेत्र में महाभारत जैसा बहुत भीषण युद्ध लड़ा गया था जिस में बहुत सी जाने गयी और इसी कारण आज भी करुक्षेत्र के मिटटी का रंग लाल है. महाभारत ग्रन्थ की रचना ऋषि व्यास ने करी थी जो काफी विस्तृत है तथा इसमें अनेक घटनाओ और पहलुओ का वर्णन है. महाभारत की कथा हम बचपन से सुनते और पढ़ते आ रहे है फिर भी महाभारत से जुडी कुछ घटनाये ऐसी है जो हम में से बहुत कम ही लोग जानते है.

महाभारत की इन्ही अनसुनी कथा में से एक है महाभारत के वीर योद्धा दानवीर कर्ण के पूर्व जन्म से जुडी गाथा. कर्ण कुंती के पुत्र और पांडवो के ज्येष्ठ भ्राता थे परन्तु क्षत्रिय होने के बावजूद वे सूत्र पुत्र कहलाये. वे न केवल अर्जुन से कुशल धनुर्धर थे बल्कि उनसे कुशल योद्धा भी थे फिर उन्हें वह सम्मान प्राप्त नही हो पाया जिसके वे वास्त्विक हकदार थे. इन सब का कारण केवल एक ही था की वे सूत पुत्र थे. कर्ण हमेशा धर्म की राह पर चले तथा उन्होंने अपनी आखिर सांसो तक मित्र धर्म का पालन किया. इसके बावजूद कर्ण की पूरी जिंदगी कष्टो से भरी रही, इन सब का कारण था उनके पूर्व जन्म में किये गए पापो का फल जो उन्हें इस जन्म में भुगतना पड़ा.

अपने पहले जन्म में कर्ण एक असुर थे जिसका नाम दंबोधव था. दंबोधव ने भगवान सूर्य की तपस्या  कर उन्हें प्रसन्न किया तथा उनसे वरदान माँगा की उनके द्वारा उसे सो कवच प्राप्त होंगे साथ ही उन कवच पर केवल वही व्यक्ति प्रहार कर सके जिसके पास हज़ारो सालो के तप का प्रभाव हो. दंबोधव यही पर शांत नही हुआ उसने भगवान सूर्य से यह भी वर मांग लिया की कोई साधारण व्यक्ति इस कवच को भेदने का भी प्रयास करे तो उसकी मृत्यु उसी क्षण हो जाये क्योकि सूर्य देव दंबोधव के कठिन तपश्या से बहुत प्रसन्न थे अतः यह जानते हुए भी की दंबोधव को दिया वर संसार के लिए कल्याणकारी न होगा उन्होंने यह वर उसे दे दिया. वरदान मिलते ही दंबोधव अपने वास्त्विक स्वभाव में आ गया तथा उसने निर्दोष प्राणियों को मारना शुरू कर दिया. उसने अपने शक्तियों के प्रभाव से सारे वनो और आश्रम को जला दिया.

दंबोधव के आतंक से परेशान होकर प्रजापति दक्ष की पुत्री मूर्ति ने भगवान विष्णु की तपस्या  कर उन्हें प्रसन्न किया तथा वरदान स्वरूप उनसे सहस्त्र कवच के अंत का वरदान माँगा. भगवान विष्णु बोले की वे स्वयं सहस्त्र कवच का अंत करेंगे तथा उसका माध्यम मूर्ति ही होंगी. कुछ समय पश्चात मूर्ति ने नर-नारायण नाम के दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया, जो शरीर से तो अलग थे परन्तु वे कर्म, मन और आत्मा से वे एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. नर और नारयण ने संयुक्त प्रयास से 99 कवच काट डाले परन्तु जब एक कवच शेष रह गया था उसी समय नरायण तपस्या  में लीन हो गए तथा दंबोधव मौका देख युद्ध स्थल से भाग गया और सूर्य देवता की शरण ले ली.

जब नर और नारायण दंबोधव को ढूढ़ते हुए सूर्य के पास पहुंचे तो सूर्य देव उनसे बोले “हे ईश्वर, मैं मानता हूं दंबोधव एक बुरी आत्मा है, लेकिन इसने अपनी कठोर तपस्या के बल पर वरदान हासिल किया, इसका फल उससे मत छीनिए. वह मदद के लिए मेरी शरण में आया है”.नर और नरायण सूर्य देव से क्रोधित हुए तथा सूर्य देव सहित दंबोधव को भी श्राप दे डाला की दोनों को ही अगले जन्म में अपने कर्मो का फल भुगतना पड़ेगा. इस तरह द्वापर में दंबोधर का अगले जन्म में कर्ण के रूप में जन्म हुआ.कर्ण का जन्म उसी सुरक्षा कवच के साथ हुआ था जो उनके पूर्व जन्म में दंबोधव के रूप में उनके पास शेष रह गया था.

Thursday, 9 February 2017

उत्तर प्रदेश चुनाव : दलित बनाम स्वर्ण



भारतीय राजनीती में वाक्य ये रहा है की दिल्ली की सत्ता लखनऊ से चलती से वो इस कारण रहा है क्योके अभी के समय पर उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य उभर कर आ रहा है। कल पहले चरण के मतदान के साथ ही उत्तर प्रदेश की जुबानी जंग भी खतम्म होने वाली है। उत्तर प्रदेश को मुख्यतः दो भागो में बनता जाता है 1.पुर्वी 2.पश्चिमी

पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुछ क्षेत्रो के अन्यत्र कही पर भी भाजपा का जितना असम्भव सा ही होता है परतु इस बार के लोकसभा चुनावो से ये बात साफ़ हो गई थी की जनता गुंडाराज से तंग आकर कुछ बदलाव लेन की इच्छा में है। पहले के दिनों में उत्तर प्रदेश में मायावती दलितों से हितो में बात करने वाली मंजी जाती थी परंतु अपने एक ही शाशन काल में जो उन्होंने सरकारी खजाने का माह प्रयोग किया था उसके बाद वो अपनी आरक्षित सीट पर भी नहीं जीत पाई। स्वयं को दलित कहने वाली मायावती का जन्म एक दलित पारिवर में हुआ था और राजनीती में आने के बाद उन्होंने "बोद्ध" धर्म अपना लिया लेकिन वो अभी भी स्वयं ही कहती है!!!

ये आश्चर्य की बात है की जो महिला स्वयं दलित जाती में नहीं रही वो दलितों की मसीहां बन कर उनके साथ किस प्रकार छल कर रही है।यद्यपि किसी के हिट की बात करना गलत नहीं है परंतु केवल दलितों के हिट की बात करना और उनके हितो की बात कर स्वर्णो पर अत्याचार करना भी सही नहीं है। आज के समय पर "टीना डाबी " जैस दलित को केवल इस कारण अच्छी नोकरी मिल जाती है की वो दलित है और "अंकित गर्ग" जैसे व्यक्ति व्यक्ति को केवल इस लिए नहीं मिलती क्योकि वो स्वर्ण है।
बुंदेलखंड जैस क्षेत्र जहा पर पानी और विद्युत् की अत्यधिक समस्या है वहां पर यदि प्रधानमंत्री जल प्रबंधन करते है तो राज्य सरकार द्वरा ये कह कर रोक दिया जाता है की दलितों की वोट लेने के लिए ऐसा किया जा रहा है।

"अमेरिका" के संविधान के निर्माण के समय जब वह के सांसदों ने नीग्रो लोगो केलिए आरक्षण की मांग की तो उसे यह कह कर ठुकरा दिया गया की "यदि आज हम इन्हें आरक्षण देते है तो कल को ये कुछ नहीं करेंगे अपने आरक्षण पर जियेंगे और देश पर बोझ बनेंगे इस लिए इन्हें आरक्षण की जगह समानता का अधिकार दिया जाये"
यदि भीमराव आंबेडकर जी ने सारी दुनिया के संविधानो से सही नियमो को चुन कर हमारे संविधान का निर्माण किया था तो उनसे अमेरिका कैसे छूट गया ?
क्या वो सारी दुनिया सैर सपाटे के लिए गए थे या काम के लिए गए थे ?

2 . पश्चिमी उत्तर प्रदेश कुछ क्षेत्रो को छोड़ कर भाजपा का गढ़ रहा है। इसका मुख्य कारण ये भी है की यहाँ पर अधिकतर समाज स्वर्ण जाती है।
इसी कारण से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दिल्ली से लगे क्षेत्रो को के अन्यत्र किसी भी क्षेत्र का विकास नहीं हुआ है। किसानों को सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता है विद्युत् के लिए आकाशीय विद्युत् पर फसल ख़राब होने पर किसी भी प्रकार की सहूलियत प्राप्त होने तक आत्महत्या के कई विफल प्रयास किए जा चुके होते है। किसान के लिए अपने परिवार को छोडकर मरना भी सरल नहीं होता और कर्ज उसे जीने नहीं देता।
मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी में तो काफी डाव दिखाए है परंतु राजनीती में केवल रंग दिखाए है सभी प्रकार की सेवाएं केवल यादवो और मुस्लिमो केलिए देने वाले ये नेता आज उस दल को मिलकर हराने में जुटे है वो 16 वर्षो से उत्तरप्रदेश की राजनीती से विलुप्त है।
नतीजे निकट ही है देखना ये है की ऊँट किस करवट लेटता है।

Tuesday, 7 February 2017

महारथी कर्ण : मृत्यु के कारण

महाभारत के महान योद्धाओ में से एक कर्ण थे जिनको परास्त करना किसी भी योद्धा के साहस की बात नहीं थी कर्ण  एक ऐसी महाथी थे जो पल भर में सैकड़ो सैनिको के प्राण हरण कर रहे थे लेकिन अंत में उनकी मृत्यु हुई जो की उनको शापो के कारण संभव हुई।
"सूर्यपुत्र महारथी कर्ण" को 3 शापो के कारण युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई
  • पहला शाप गुरु परशुराम का था जो की उन्हें तब दिया गया था जब वो परशुरामजी से शिक्षा ले रहे थे। जब कर्ण परशुरामजी से शिक्षा लेने गए तब उन्हें ये ज्ञात हुआ की परशुरामजी क्षत्रियो को शिक्षा नहीं देते और कर्ण ने यह कह कर परशुरामजी से शिक्षा ग्रहण करनी आरम्भ कर दी की वो क्षत्रिय नहीं अपितु ब्राह्मण है। जब उनकी शिक्षा पूर्ण होने वाली थी तब एक इन गुरु परशुराम वन में आराम करने के लिए कर्ण की जंघा को अपने सिर के निचे लगा कर विश्राम करने लगे। इतने में इंद्र ने एक बिच्छू का रूप धरा और कर्ण की जांघ में आकर अपने दंश गड़ा दिए। इस से कर्ण लहूलुहान भी उसे और पीड़ा भी अत्यधिक हुई परंतु उन्होंने गुरु की नींद न खुले इस लिए सबकुछ सहन कर लिया जब गुरु की आँखे खुली और सारा दृश्य देखा तो उन्होंने कहा की इतनी पीड़ा सहन करना किसी ब्राह्मण के वश की बात नहीं है बताओ कोण हो तुम ?कर्ण ने सब बता दिया की वो क्षत्रिय कम के है इस बात से क्रोधित होकर परशुरामजी ने कर्ण को शाप दिया की जीवन में जब कभी भी उसे सिखाई हुई विद्याओ की सबसे अधिक आवश्यकता होगी तब वो शक्तिया वो भूल जायेगा। 
  • दूसरा शाप था गौ का शाप - परशुरामजी ने शाप के बाद गुरु भक्ति से प्रसन्न होकर यह वरदान भी दिया था की शब्द भेदी बाण उनसे अच्छा कोई नहीं चला पायेगा जब एक दन आखेट के लिए निकले कर्ण को वन में झाड़ियो में कुछ हलचल दिखाई दी तो उन्होंने कोई जंगली जीव समझ कर उसपर शब्द भेदी बाण का प्रयोग क्या जिस कारण झाड़ियो के पीछे घास चरति गौ की तदोपरांत ही मृत्यु हो गई। ऐसा देख गौ का स्वामी ब्राह्मण क्रोधित हो कर बोला की तेरी मृत्यु भी इसी प्रकार से होगी जब तू निहत्था होगा और अपने जीवन के लिए लड़ रहा होगा उस समय तुझपर भी कोई दया नहीं करेगा और मृत्यु तुझे अपने पास बुला लेगी। 
  • तीसरा शाप था पृथ्वी का शाप - एक समय अंगराज कर्ण अपने राज्य अंग में भ्रमण के लिए निकले तो राह में एक बालिका को रोते हुए देख अपने रथ को रोक लिया और बालिका से रोने का करण पूछा। बालिका ने कहा की उसका घृत का पात्र उसके हाथो से छूट कर गिर गया और टूट गया है यदि वह घर जाती है तो उसकी माता उसे दण्डित करेगी इस कारण वह रो रही है। यह सुन अंगराज ने कहा की में तुम्हे दूसरा घृत अपने राज्य से दिल दूंगा तुम रोना मत। बालिकां ने कहा की नहीं उसे यही घृत चाहिए और ऐसी हठ करने लगी तब कर्ण ने भूमि से मिटटी वाला घृत उठा कर अपने दोनों हाथो की हथेलियो के मध्य रख कर जो दबाया तो अंदर से किसी के कराहने की आवाज सुन कर कारण ने हाथ खोल लिए और माता भूमि को देख कर आश्चर्य से भर गए। भूमि ने कहा की तुमने मुझे अत्यंत पीड़ा पहुचाई है जब भी तुम अपने जीवन में निर्णायक युद्ध करोगे तब में तुम्हारे रथ के पहियो को निगल कर युद्ध के परिणाम को बदलूंगी।

Saturday, 4 February 2017

भीष्म पितामह से पूर्व


महाभारत के समय कुछ महारथी ऐसे थे जो पल भर में युद्ध को समाप्त कर सकते थे परंतु प्रभु की लीला और धर्म के विमुख जाना भी उनके लिए संभव नहीं था।
इसी कारण उन्हीने अधर्म के साथ रहकर धरमः का पालन किया उन्ही में से एक महान महारथी थे भीष्म पितामह।
इनका वास्तवीक नाम देवदत्त था ये देवी गंगा और शांतनु के पुत्र थे।
एक धरती के एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्हीने अपने पिता का विवाह कराया था इनके अन्यत्र कोई भी पुत्र अपने पिता का विवाह नहीं करा पाया।
महाभारत के आदिपर्व अनुसार एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहां वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में बंधी देव गो नंदिनी पर पड़ गई। उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है।
पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों के साथ उस गाय का हरण कर लिया। जब महर्षि वसिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बात जान ली। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब सभी वसु ऋषि वसिष्ठ से क्षमा मांगने आए।
तब ऋषि ने कहा कि तुम सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। महाभारत के अनुसार द्यौ नामक वसु ने गंगापुत्र भीष्म के रूप में जन्म लिया था।ये एक वसु होने का ही परिणाम था की भीष्म ने सभी प्रकार की विद्या अपने गुरुजनो से अति शीघ्र सिख ली थी। एक बार शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगातट पर जा पहुंचे। उन्होंने वहां एक परम सुंदर स्त्री देखी। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए। शांतनु ने उसका परिचय पूछते हुए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा। उस स्त्री ने इसकी स्वीकृति दे दी, लेकिन एक शर्त रखी कि आप कभी भी मुझे किसी भी काम के लिए रोकेंगे नहीं अन्यथा उसी पल मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी। शांतनु ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा उस स्त्री से विवाह कर लिया।
समय बीतने पर शांतनु के यहां एक एक कर सात पुत्रों ने जन्म लिया, लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया। शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाएं क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी। आठवां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही हो ?
उस स्त्री ने बताया कि मैं देवनदी गंगा हूं तथा जिन पुत्रों को मैंने नदी में डाला था वे सभी वसु थे जिन्हें वसिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था। उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया। आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका। इसलिए मैं अब जा रही हूं। ऐसा कहकर गंगा शांतनु के आठवें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई। गंगा जब शांतनु के आठवे पुत्र को साथ लेकर चली गई तो राजा शांतनु बहुत उदास रहने लगे। इस तरह थोड़ा और समय बीता। शांतनु एक दिन गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि गंगा में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है। इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है।
यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका आठवां पुत्र है। इसका नाम देवव्रत है। इसने वसिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है। यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इंद्र के समान इसका तेज है।
देवव्रत का परिचय देकर गंगा उसे शांतनु को सौंपकर चली गई। शांतनु देवव्रत को लेकर अपनी राजधानी में लेकर आए तथा शीघ्र ही उसे युवराज बना दिया। गंगापुत्र देवव्रत ने अपनी व्यवहारकुशलता के कारण शीघ्र प्रजा को अपना हितैषी बना लिया।श्राप के प्रभाव से वे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहे तथा अंत में इच्छामृत्यु से प्राण त्यागे।

Wednesday, 1 February 2017

संघ : सेवा तथा त्याग (भाग २ )


संघ ने अपने नियम और संयम से आज 5 करोड़ से अधिक संघी तैयार कर लिए है इन सभी को निर्देश और शाखा को सुचारू रूप से चलने के लिए शाखा प्रमुख का शांत और कड़े निर्णय लेने वाला होना अति आवश्यक है। कुछ कार्यो को करने के लिए आयु अत्यंत महत्वपूर्ण है जैसे की बैंको में शाखा प्रबंधक की आयु 35 वर्ष से अधिक होनी चाहिए उसी प्रकार से यहाँ पर भी कुछ चरणों के बाद ही शाखा का प्रबंधन दिया जाता है। आयु से सीधा तात्पर्य ये है की यदि कोई अत्यंत क्रोधी स्वाभाव का व्यक्ति आपके सम्मुख आता है और उसकी आयु अधिक है तो वह आपकी बातो को समझ पाने में असमर्थ  होगा और आपकी आयु कम समझ कर आपकी बातो को भी नहीं सुनेगा।


संघ में सभी प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है लाठी से लेकर बंदूको तक का और ये सभी निशुल्क है।
इन सभी प्रकार के शस्त्रो का प्रयोग केवल तभी सिखाया जाता है जब व्यक्ति योग अभ्यास कर अपने चित्त को शांत कर लेता है और अपनी मानसिक प्रतिक्रियाओ पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है। यदि कोई व्यक्ति बिना योग अभ्यास के इनका प्रशिक्षण लेता है तो उस से समाज को हानि हो सकती है वह अपनी विद्या का प्रयोग किसी को हानि पहुचने या अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए भी कर सकता है।

संघ में इस विषय पर अत्यंत धयान दिया जाता है की यदि किसी भी स्वयं सेवक के साथ कुछ अशिष्ट या कोई अभद्रता होती है तो वह संयम रखे और संघ को सुचना देकर उसका क़ानूनी निपटारा हो अत्यंत ही विपरीत परिस्थितियों में ही वह हिंसा के मार्ग को अपनाये न की प्रत्येक परिस्थिति में।
सभी सेवको को सेवा करने का प्रशिक्षण दिया जाता है और सभी को संघ के अनेको कार्यक्रमो में सभी प्रकार के कार्यो में कुशलता से व्यावहारिक ज्ञान भी दिया जाता है।
राष्ट्र सेवा को सेवको के अंदर कूट कूट कर भरा जाता है किसी भी प्रकार की आपदा में चाहे वह प्राकृतिक हो या मानव निर्मित या कोई दुघटना उसमे संघ के कार्यकर्ताओ को कोई भी सेना या सुरक्षाबल सेए से नहीं रोकता।
आपदा प्रबंधन,स्वयं सुरक्षा तथा नारीसम्मान संघ के सेवक को अति सूक्षमता से सिखाया जाता है और प्रत्येक संघ कार्यरत को को इन्हें अपने जीवन में वास्तविकता से उतारने के कड़े नियमो का पालनभी कराया जाता है।