Tuesday, 24 March 2020

कोरोना वायरस : चीनी महामारी #CORONA #CHINA

आज हमारा देश भारत और पूरा विश्व एक भयंकर वायरस की चपेट में आ चुका है जिसको हम सभी CORONA (कोरोना) या COVID- 19  के नाम से जान चुके हैं। विश्व स्वस्थ्य संगठन ने इसे महामारी घोषित कर दिया है तथा भारत सरकार ने भी इसे महामारी के रूप में पूरे देश को जागरूक कर दिया है।
इस वायरस के अत्यधिक अत्यधिक नए होने के कारन से इसे NOVEL CORONA के नाम से भी जाना जा रहा है।

कोरोना होने के लक्षण :


जिस प्रकार से शरीर में कोई भी रोग होने के कारण से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता उस से लड़ने के लिए अपने तंत्र को तैयार कर उस से लड़ती है और यदि वह रोग हमें जीवन में पहले कभी हुआ होता है तब हमारा शरीर अपनी याद के अनुसार उस से पुराने तरीके से लड़ लेता है और शरीर को रोग मुक्त कर देता है परन्तु CORONA शरीर के तंत्र के लिए इतना नाया है की हमारे शरीर को इसके विषय में कुछ भी नहीं पता और वह एक अंदाजन इस से लड़ने का प्रयास करता है , इसके लक्षण जैसे की सुखी खासी ,गले में दर्द ,साँस लेने में परेशानी ,उलटी-दस्त तेज बुखार इत्यादि।
ये सभी लक्षण कोरोना के है जिस से हमारा शरीर लड़ रहा है।
यह रोग एक से दूसरे व्यक्ति में हमारी लार के द्वारा फैलता है जिसे की यदि हम छींकने या खांसने के बाद  यदि किसी वास्तु को छूते है तो यह जीवाणु उस वास्तु में रह जाता  यदि कोई और  व्यक्ति भी इस वास्तु को स्पर्श करता है तो यह जीवाणु उसके शरीर में चले जायेंगे और ऐसे ही एक के बाद दुसरे में चलते जाते हैं।

शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता किसी भी जीवाणु को मारने या फिर शरीर से बहार करने के लिए अलग अलग प्रकार के रक्षा तंत्रो के  प्रकार का प्रयोग करती है जैसे की एक प्रकार के जीवाणु को समाप्त करने के लिए हमारा तंत्र हरे शरीर को गरम करना शुरू कर देता है जिस से की हमें तेज बुखार हो जाता है और यदि वह तब भी नहीं समाप्त होता तो शरीर स्वयं को गरम करते ही जाता है जिस से अधिक तापमान से शरीर में असंतुलन पैदा हो कर व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है।

बचाव तथा दवाइया :

अभी तक इस रोग से बचाव के लिए कोई भी दवा विकसित नहीं हो पाई है  केवल और केवल बचाव के तरीको के विषय में ही अभी तक सुझाव है।

CORONA 10 वर्ष से कम और 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगो के लिए अत्यंत ही घातक है इसमें उनके जीवन को खतरा हो सकता है तो इस से बचाव के लिए सुझाव निम्न है

1 . बाहर ना घूमे और घर में ही रहे।
2 . संक्रमित व्यक्ति से 1 मीटर की न्यूनतम दुरी बनाये रखें।
3. जूठा खाने या पिने से बचें।
4. सार्वजानिक जगहों पर मास्क पहन कर जाये हाथो को धोते रहे और स्वयं को साफ़ सुथरा बनाये रखें।
5. बुखार होने पर परिवार के अन्य लोगो से दुरी बनाये रखें।
6. योग एवं व्यायाम अवश्य करें।
7. संतुलित आहार ले तथा गरम पानी का अधिक प्रयोग करें।
8 . भोजन में फलो का भाग बढ़ा दें मांसाहार का प्रयोग बंद कर दें।
9. खट्टे फलो का प्रयोग अधिक करे जैसे की नीबू,संतरा,मौसमी  इत्यादि।
10. बीमार होने की अवस्था में शांत रहे और निकट के स्वास्थ्य संसथान से संपर्क करे और जब तक संपर्क स्थापित न हो तब तक घर में ही एकांतवास में रहे।


स्वास्थ्य संसथान दूरभाष : +91 11  23978046 

Saturday, 15 April 2017

अर्जुन महादेव युद्ध

पांडवो को १३ वर्ष का वनवास तथा १ वर्ष का अज्ञातवास हुआ इसके बाद भी मामा शकुनि ने अपनी योजना यह बनाई की अज्ञात वास में पांडवो को अपने गुप्तचर द्वारा ढूंढ कर दोबारा से वनवास भेजने का।
बारहवे वर्ष के अंत में श्री कृष्ण  पाडवो से गुप्त रूप से मिले और उन्हें आगे होने वाले युद्ध की सूचना दी। कृष्ण जानते थे की युद्ध होना निश्चित है और उसके लिए कृष्ण ने उन्हें अपनी योजना तैयार रखने की भी सलाह दी अपने सभी अस्त्रो को साधने की सलाह दी और अन्य अस्त्रो के संधान और प्रयोग को जानने की भी सलाह दी। 
इस पर अर्जुन ने पूछ की इन सभी अस्त्रो को कैसे प्राप्त किया जायेगा ?
श्री कृष्ण ने बताया की सभी अस्त्रो के संरक्षक देवराज इंद्र है तुम उन्ही के पास जाओ वही तुम्हारी सहायता करेंगे। अर्जुन ने हिमालय की कंदराओ में जाकर देवराज इंद्र का आव्हान किया और उनसे सभी अस्त्रको की प्राप्ति की अंत में इंद्र ने कहा की "हे वीर धनुर्धर अर्जुन तुमने सभी अस्त्रको का ज्ञान प्राप्त कर लिया है परंतु जब तक तुम महादेव को प्रसन्न नहीं कर लोगे तब तक तुम इन अस्त्रो को भली भांति प्रयोग नहीं कर पाओगे केवल महादेव के आशीर्वाद से ही तुम इन अस्त्रो की अशी शक्ति को प्राप्त कर पाओगे "
अर्जुन ने देवराज से अनुमति लेकर वन में जाकर महादेव को प्रसन्न करने के लिए तप आरम्भ किया। तभी वह से निकल रहे एक राक्षस की दृस्टि अर्जुन पर पड़ी और अर्जुन को अपना सायंकाल का भोजन मान उस राक्षस ने एक जंगली सूअर का रूप धारणकर उस पर हमला करने के लिए दौड़ लगाई। अर्जुन अपने तप के कारण से अत्यधिक संवेदनशील हो चुके थे और और उन्होंने जंगली सूअर के आने की अनुभूति पहले ही हो गई और पास ही रखे अपने गांडीव धनुष को उठा कर उन्होंने एक ही बाण से उन्होंने सूअर का संहार कर दिया और उसकी स्थिति देखने को जब वो उठ कर उसके पास गए तो सूअर को देख कर आश्चर्य चकित हो गए। 
उन्होंने देखा की सूअर को 1 नहीं 2 बाण लगे है। ऐसा देखा ही था की तभी अर्जुन के कानो में ध्वनि सुनाई पड़ी की दूर हट जाओ यह मेरा शिकार है इसे मैंने मार है। 
ऐसा सुन अर्जुन मुस्कुराये और व्यक्ति की तरफ देख कर बोले  "हे भील राज आप होने बड़े धनुराधार परंतु में अर्जुन हूँ गुरु द्रोण का शिष्य तथा श्री कृष्ण का सखा मरे अन्यत्र कोई और धनुर्धर इस पृथ्वी पर मुझसे तेज बाण नहीं चला सकता आपसे देखने में कोई गलती हुई है कृपया आप इस शिकार को अपना न कहें " 
इसपर भील ने कहा की आप कोण अर्जुन है मैंने तो कभी किसी अर्जुन या द्रोण का नाम नहीं सुना कैसे धनुर्धर है आप जिसे कोई नहीं जनता। और यदि आप इस बात पर घमंड करते हो की आप सबसे बड़े दनुर्धर हो तो में इस बात को चुनोति देता हूँ। 
इसपर अर्जुन ने कहा की आप या तो शिकार को अपना न कहे या फिर मेरे गांडीव धनुष से युद्ध कर निर्णय कर लें। 
इसपर भी भील ने कहा की आप कैसे तपस्वी है जो शस्त्रो को समीप रख कर तप कर रहे है ?
अर्जुन ने इसका बड़ा मनमोहक उत्तर दिया और कहा की "जब मेरे अराध्य श्री महादेव त्रिशूल साथ में रख कर तपस्या   कर सकते है तो में क्यों नहीं " और इतना बोल कर अर्जुन ने अपना धनुष जैसे ही उतने की चेस्टा की भील ने उन्हें सावधान होकर वार से बचने की चेतावनी दी। 
अर्जुन ने  जैसे ही एक पग धनुष की ओर बढ़ाया तब तक एक ही क्षण में 16 बाणों ने उनका रास्ता रोक दिया। 
ऐसा देख अर्जुन ठिठक गए और सोचने लगे की कोन  इतना महान धनुर्धर है जिसने मेरे पलटने से पहले ही बाणों की वर्षा से मेरा रास्ता रोक दिया अर्जुन एक ऐसा योद्धा जिसके पास गांडीव धनुष है जिसकी प्रत्यंचा ही 108 बाणों से आरम्भ होती है और जो एक ही पल में लाखो बाणों का अनुसन्धान कर बाणों की वर्षा कर सकता है उसे एक भील ने धनुष उठाने तक भी नहीं दिया " 
ऐसा सोच कर अर्जुन ने हाथ जोड़ कर कहा की हे भीलराज मेरी ऐसा स्थिति तो केवल गुरु द्रोण, पितामह भीष्म देवराज इंद्र और महादेव के अन्यत्र कोई नहीं कर सकता। गुरु द्रोण तथा पितामह भीष्म आप है नहीं उन्हें में भली भाती जनता हूँ। आप देवराज इंद्र भी नहीं आप केवल महादेव है। 
ऐसा सुन भील ने कहा की में इंद्र क्यों नहीं हो सकता ?
तो अर्जुन ने कहा की भगवान् में उपासना तो आपकी कर रहा था तो इंद्र कैसे आ सकते है। 
ऐसा सुन महादेव अपने असली रूप में आये और घमंड न करने की आज्ञा देकर तथा दिव्या अस्त्रो का आशीर्वाद देकर वापस अंतर्धयान हो गए। 

Saturday, 1 April 2017

रावण की कैद

सभी सनातनियो को इस विषय में ज्ञात है की रावण एक महान योद्धा था जो बाली के अन्यत्र किसी से भी पराजित नहीं हुआ। परंतु ऐसा नहीं है रावण बाली के अन्यत्र भी एक प्रतापी राजा का कैदी रह चुका है।
हैहय वंश में उत्पन्न महाराज कार्तवीर्य अर्जुन बड़े ही शूरवीर तथा प्रतापी राजा थे वे अत्यंत ही साधक भी थे उन्होंने अपनी साधन के बल पर ही अपने गुरु दत्तोत्रय को प्रसन्न कर एक हजार भुजाओ का वरदान प्राप्त किया था जिसके कारन उनका नाम सहस्त्रबाहु अर्जुन भी था।
एक समय जब सहस्त्रबाहु अपने रानियों के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था तब कौतुक में उसने अपनी भुजाओ को फैला कर नदी का जल रोक लिया। 
उस समय रावण भगवान् भोलेनाथ की उपासना कर रहा था और जल का एका-एक समाप्त हो जाना उनके लिये आश्चर्य का कारन बन उठा तथा क्रोध का भी कारन बना। 
भगवान् को प्रसन्न करने के जलभिषेक के लिए रावण को जल की अत्यंत आवश्यकता थी तब जल का अनुपलब्ध होना क्रोध का कारण था। 
इस विषय का संज्ञान लेने जब रावण नदी में उतरा वे आगे की और बढ़ तो देखा की सहस्त्रबाहु अपनी रानियों के साथ जल क्रीड़ा कर रहा है और जल को रोक कर अपने बल का प्रदर्शन कर रहा है। यह सब देख रावण आग बबुला हो उठा और सीधे युद्ध करने लगा। 
परंतु सहत्रबाहु के आगे वह  टिक न सका और कुछ ही देर में सहस्त्रबाहु ने रावण को बंदी बना बेड़ियो के जकड कर कारागार  में डलवा दिया।
परंतु कुछ ही समय बाद पुलत्स्य मुनि ने अज्ञानी साधक समझ कर रावण को कारागार से मुक्त करा दिया और रावण फिर से साधना में बैठ कर अपनी शक्तियों को बढ़ने लगा। 

Saturday, 25 March 2017

युद्ध कर्ण तथा अर्जुन

महाभारत के भीषण युद्ध में एक समय जब कर्ण तथा अर्जुन एक दूसरे के सम्मुख शस्त्रो को लेकर खड़े थे उस समय श्री कृष्ण को अर्जुन केवल यह कहते हुए सुन रहे थे की वाह सूर्यपुत्र तुम्हारे शस्त्रो के परिचय के सम्मुख तो यहाँ सभी महारथी तुच्छ है ऐसा सुनकर अर्जुन अत्यंत ही कुपित होकर श्री कृष्ण से पूछते है की जब में कर्ण पर बाण चलता हूँ उस समय उसका रथ २०० कदम पीछे चला जाता है तथा जब वह अपने शस्त्रो से वार करता है उस समय मेरा रथ कुछ पग ही पीछे खिसकता है इसमें कर्ण का पराक्रम तो कम ही हुआ फिर भी आप उसकी प्रशंशा में अत्यंत ही प्रसन्न होते दिख रहे है ऐसा क्यों ?
श्री कृष्ण ने कहा की अर्जुन जब तुम कर्ण कर वार करते हो उस समय कर्ण अकेला ही तुमसे युद्ध कर रहा होता है वो भी बिना किस दैवीय शक्ति के और जब तुम कर्ण पर वार करते हो उस समय तुम्हरे रथ पर ध्वज बन कर स्वयं महावीर हनुमान बैठे होते है जो की अपनी शक्तियों से तुम्हारे रथ को पीछे हटने से रोकते है और तुम्हारे रथ के पहियो में शेषनाग लिपटे हुए है जो की रथ को पीछे की जगह आगे की ओर धकेलते है तुम्हारा रथ स्वयं श्री हरी चला रहे है वो सबसे बड़े सारथी है और इन सभी शक्तियों के बाद भी यदि तुम्हारा रथ पीछे खिसकता है तो इसमें कर्ण का पराक्रम ही है और तुम्हरी शक्तियों पर संदेह।तुम सभी शक्तियों और अस्त्रो के ज्ञाता हो परंतु तुम कर्ण के सामान तेजस्वी नहीं हो तुम्हरे पास दैवीय गुणों वाला धनुष गांडीव है तुम्हारे अस्त्र भवन शिव के द्वारा रक्षित है अस्त्रो से केवल देह को कटा जा सकता है परंतु कर्ण  की देह को काटने के बाद भी उसके पराक्रम को काट पाना असंभव है कर्ण स्वयं में एक सेना है।कर्ण का पराक्रम उसके कवच और कुंडल में नहीं था उसका पराक्रम उसके संकल्प और परिश्रम में है।
यदि तुम कर्ण मार भी देते हो तो इसमें तुम्हारा कोई पराक्रम नहीं है। कर्ण की मृत्यु निश्चित है परंतु तुम उस मृत्यु के केवल एक कारण हो तुम अकेले कर्ण को कभी मार ही नहीं सकते। यदि तुम अकेले ऐसा करने की सोचते भी हो तो अगले ही पल तुम मृत्यु से आलंगित हो चुके होंगे।कर्ण का प्रताप देखे बनता है कर्ण से तुम्हारी रक्षा के लिए स्वयं देवराज इंद्र को भिक्षा लेने केलिए कर्ण के सम्मुख आना पड़ा तथा कर्ण को यह ज्ञात होते हुए भी की वो दान में उसका जीवन मांगने आये है तब भी बिना विलम्भ किए उन्होंने दान किया। युद्ध के 17 वें दिन जब कर्ण का पराक्रम और क्रोध अपनी ऊंचाइयों पर था उस समय उनके समख आये चारो पांडवो को कर्ण के भली प्रकार रक्त-रंजीत कर लहू का स्वाद चखा दिया था उसी में कही न कही कर्ण ने यह भी बता दिया था की यदि कर्ण को जल्दी ही नहीं मारा गया तो परिणाम क्या हो सकता है। कर्ण का अपनी माता कुंती को दिया गया वचन ही केवल एक ऐसा बंधन था जिसके कारण कर्ण ने अर्जुन के अन्यत्र चारो पांडवो को लहूलुहान कर जीवित रहने दिया था अन्यथा वह महावीर अपने विजय धनुष से किसी के भी प्राण हरने में सक्षम था।
कर्ण मृत्यु से सदैव निर्भीक रहे थे उन्हें ब्रम्हास्त्र  तक की भी कोई चिंता नहीं थी यद्यपि उन्हें शाप था की वो अपनी विद्या को भूल जायेंगे तब भी युद्ध आकर उन्होंने अपने पराक्रम का ही परिचय दिया है।
कर्ण  ने ही कोरवो की सेना को घटोत्कच से बचाया था यदि कर्ण न होता तो युद्ध पहले ही समाप्त हो चुका होता। गुरु परशुराम जी ने उन्हें शाप के साथ-साथ विजय धनुष भी दिया है जिसके सम्मुख तुम्हारा गांडीव धनुष व्यर्थ है जब तक कर्ण के हाथो में विजय धनुष है तब तक तुम्हारे बाण कर्ण को स्पर्श भी नहीं कर सकते इस लिए कर्ण को निहत्था मरना ही एकमात्र उपाय है। 

Saturday, 18 March 2017

ध्रुव की तपस्या


भक्त के लिए भगवान् नंगे पैर भी भागे चले आते है लेकिन एक ऐसा भी भक्त हुआ है जिसने भगवान् को आने पर विवश कर दिया था।
माता सुनीति और पिता उत्तानपात की संतान "ध्रुव" जब पांच वर्ष की आयु के थे तब एक दिन बालक ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठ कर खेल रहे थे उसी समय उनकी छोटी माता "सुरुचि" वहां पर आई और अपनी सौतन के पुत्र को पिता के साथ खेलते देख वो तिलमिला उठी।
उसी समय उन्होंने ध्रुव को उनकी गोद से खीचा और अपने पुत्र को उनकी गोद में बिठा कर कटाक्ष किया की तेरा ऐसा भाग्य कहा की पिता की गोद में बैठ सके.
तब बालक ध्रुव ने अपनी छोटी माता से पुछा की मेरे भाग्य का उदय किस प्रकार होगा ?
में किस प्रकार से अपने पिता की गोद में बैठ पाउँगा ?
माता सुरुचि ने व्यंग कर कहा की तेरे भाग्य का उदय तो अब केवल भगवान् श्री हरी ही कर सकते हैं उनकी तपस्या कर और उनसे वरदान मांग।
तब 5 वर्ष का बालक अपने नन्हे कोमल पैरो से वन की ओर  बढ़ने लगा उसकी काया इतनी कोमल थी की रस्ते की धुप भी नहीं सह सकती थी वो बालक ध्रुव ने अपनी माता से आज्ञा लेकर वन की तरफ प्रस्थान कर गया और एक पेड़ के निचे जाकर भगवान् के भजन के विषय में सोचने लगे उस समय देव ऋषि नारद ध्रुव का मार्गदर्शन करने केलिए आये और उन्हें ॐ नमो नारायणाय का गुरु मंत्र दिया और अंतर्धयान हो गए।

 


गुरु से दीक्षा लेकर 5 वर्ष के प्रह्लाद ने अपनी तपस्या आरम्भ की और उनकी तपस्या इतनी घोर थी की जब वो प्राणवायु को अंदर खीचते तो समस्त सृस्टि की सम्पूर्ण वायु को अनपे भीतर खीच लेते और जब वायु को बहार की तराव छोड़ते तो भयंकर प्रलय ला देते।अपनी छोटी सी उम्र में उन्होंने बड़े-बड़े ऋषि और मुनियो को भी डरा दने वाला तप आरम्भ कर दिया वो अनपे तप की भीषण गर्मी से धरती को भी तापा देने लगे श्रिस्ति में स्थित जीवो में प्रलय आने का सा आभास होने लगा पशु पक्षी मारने लगे जीवो ने जंगलो का त्याग करना आरम्भ कर दिया और अपने पंजो पर खड़े होकर ध्रुव ने धरती को निचे धकेल देने का आभास करा दिया इतनी घोर तपस्या देख इंद्र का सिंघासन भी डोलने लगा और उसने अपनी माया से उत्पन्न राक्षसों को भेज ध्रुव की तपस्या को भांग करने की चेस्टा की लेकिन ध्रुव पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ.



और अत्यंत अल्प समय  के घोर तप के बाद जब भगवान् ने दर्शन दिए तब भगवान् ने वर मांगने को कहा तो जगत पिता को अपने सम्मुख देख ध्रुव की सभी इन्द्रिय निष्क्रिय हो गई और वो भाव विभोर होकर कुछ न कह पाए आखो से अश्रु धारा बहने लगी मुख पर होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाने लगे सारा शरीर स्तब्ध होकर एक ही जगह पर जम सा गया तब अष्ट भुज चक्रधारी भगवान् ध्रुव के निकट आये और उन्हें अपनी गोद में बिठाया  और अपने शंख को उनके मुह पर लगा उनके ज्ञान और इन्द्रियों को जाग्रत किया उसके पश्चात भगवान् बोले हे " भक्त में तुम्हारे अन्तःकरण की बात को जानता हूँ। तुम्हारी  सभी इच्छायें पूर्ण होंगी। तुम्हारी  भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हे वह लोक प्रदान करता हूँ जिसके चारों ओर ज्योतिश्चक्र घूमता रहता है तथा जिसके आधार पर यह सारे ग्रह नक्षत्र घूमते हैं। प्रलयकाल में भी जिसका नाश नहीं होता। सप्तर्षि भी नक्षत्रों के साथ जिसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। तुम्हारे नाम पर वह ध्रुवलोक कहलायेगा।आकाश में स्टेव तुम्हारे नाम से तुम्हारे लोक की दीप्ती को देखा जा सकेगा। इस लोक में छत्तीस सहस्त्र वर्ष तक तुम पृथ्वी का शासन करेगा। समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अन्त समय में तुम मेरे लोक को प्राप्त करोगे।"

Monday, 13 March 2017

विधाता ही सर्वोपरी है

एक समय भगवान् विष्णु का वाहन गरुड़ भगवान् के द्वार पर खड़ा था उस समय वो कल्पवृक्ष के विषय में सोच रहा था। कल्पवृक्ष एक ऐसा वृक्ष है जो सभी कल्पनाओ के सच कर सकता है तथा उसके निचे आने वाले सभी जीवो की कल्पना सत्य होती है। गरुड़ कालवृक्ष से कुछ दूरी पर स्थित होकर भगवान् के द्वार के निकट ऐसा सोच रहा था की भगवान् कितने कृपालु है सब पर कृपा करते है और अत्यंत ही दयालु है।
उसी समय वहाँ पर एक चिड़िया दिखती है जिसकी हालात अत्यंत ही गंभीर होती है जो की मृत्यु के अत्यंत ही समीप होती है उसकी इस दशा को देख कर गरुड़ को उस पर दया आ जाती है और सुको बीमार समझ कर वो जैसे निकट नजर घूमाते है उनको यमराज दिखाई पड़ते है जो की उस चिड़िया को देख रहे होते है गरुड़ तुरंत ही समझ जाता है की यमराज उसके प्राण लेने आये हैं।
गरुड़ उनके कुछ भी करने से पहले चिड़िया को अपने पंजो में दबा पर दूर उदा जाता है और उस चिड़िया को सुमेरु पर्वत पर छोड आता है। तब वापस आकर जब गरुड़ यमदेव को देखता है तो वो मुस्कुराते है और कहते है की गरुड़ मेरा यहाँ पर आने का उद्देश्य भगवान् श्री हरी से मिलना था और जब मैंने उस चिड़िया को यहाँ तड़पते हुए देखा और उसकी मृत्यु देखि तो मैंने देखा की कुछ ही पल में उसकी मृत्यु सैकड़ो मील दूर सुमेरु पर्वत पर सर्प द्वारा निगले जाने से होगी तो में यह सोच कर आश्चर्य चकित हो रहा था की ये छोटी सी चिड़िया इतने कम समय में इतनी दूरी कैसे तय करगी ?
और उसके बाद मैंने वो सब देखा जो तुम्हें अज्ञानता में किया।
इसमें भी प्रभु की ही इच्छा ही हम सभी तो एक कारण मात्र है इन सब कर्मो में। 

Saturday, 11 March 2017

श्री कृष्णा द्वारा असहिष्णुता का पाठ

पांडवो के द्वरा जुए से सबकुछ  हारने के बाद जब उन्हें 13 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास हुआ तब वो 14 वर्षो तक सबसे दूर रहते हुए 1 वर्ष का अज्ञातवास व्यतीत कर जब वापस आकर राज्य में अपने हिस्से केलिए उन्होंने दुर्योधन से कहा से हमें हमारा हिस्सा दो तब उन्होंने अपनी मांगे रखने के लिए श्री कृष्णा को अपना दूत बना कर दुर्योधन के समक्ष भेजा।
श्री कृष्णा द्वरा जब पांडवो के अभिकरो की बात रखी  तब दुर्योधन ने अज्ञानतावश श्री कृष्णा को एक ग्वाला समझ अपने सैनिको को उन्हें बंदी बना लेने का आदेश दिया। उस समय श्री कृष्णा ने दुरोशन के समक्ष ये विचार रखा था की पांडवो को उनके अधिकारों के अनुसार आधा राज्य दिया जाये इसपर दुर्योधन राजी नहीं हुआ इसके उपरांत श्री कृष्णा ने दुर्योधन के समक्ष 5 राज्य तथा 5 गाव के विषय तक में विचार करने के लिये कहा तो दुर्योधन ने कहा की में पांडवो को सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा और यदि इन्हें कुछ चाहिए तो आकर युद्ध कर ले और ले जाए।
महाभारत के उपरांत अर्जुन ने श्री कृष्णा से पुछा की प्रभु आप चाहते तो दुर्योधन को 5 गाव देने के लिए राजी कर सकते थे लेकिन आपने ऐसा किया क्यों नहीं ?
उत्तर में श्री कृष्णा बोले
पार्थ में तो तुम्हे केवल ये बताना चाह रहा था की तुम कितने भी सरल या साधु क्यों न हो यदि सर्प के से मित्रता करोगे तो वो तुम्हे विष के अतिरिक्त कुछ नहीं देगा।
मैंने दुर्योधन के आगे एक छोटी सी मांग 5 गाँवो की परन्तु यदि सामने वाले व्यक्ति ने मन में युद्ध की ही सोची हुई है तो तुम युद्ध से क्यों घबराते हो ?
यदि तुम्हारे अंदर सामर्थ्य है युद्ध करने का और तुम सही पक्ष में हो तो तुम कर्म करने से क्यों घबराते हो ?
पार्थ
यदि में चाहता तो युद्ध टल भी सकता था परंतु इस से दुर्योधन के अत्याचार अत्यधिक बढ़ जाते और वो तुम्हे कमजोर समझने लगता और अपने अत्याचारों को और बढ़ावा देता इस कारण उसके अत्याचारो का दमन करना आवश्यक था यदि में हथियार उठा लेता तो युद्ध पल भर में समाप्त कर देता इस से दुयोधन को कोई सिख नहीं मिलती तुमने युद्ध किया उसके पक्ष के सभी महारथियों को एक एक कर परास्त कर वीरगति की तरफ अग्रसर किया इस से उसका मनोबल टूटा और उसे मानसिक पीड़ा हुई जो वो सभी को पंहुचा रहा था और अंत में उसकी मृत्यु पीडयक हुई जो समाज केलिए एक उदाहरण बन कर सामने आई।
पर्थ जब कभी भी समाज में अपने ही नीचता पर अग्रसर हो तब उनके समक्ष आग्रह करना व्यर्थ होता है उस समय उन्हें दण्डित  करना ही उचित समाधान होता है इसकारण ये युद्ध तुम्हरे द्वारा लड़ा जाना आवश्यक हो गया था।