भक्त के लिए भगवान् नंगे पैर भी भागे चले आते है लेकिन एक ऐसा भी भक्त हुआ है जिसने भगवान् को आने पर विवश कर दिया था।
माता सुनीति और पिता उत्तानपात की संतान "ध्रुव" जब पांच वर्ष की आयु के थे तब एक दिन बालक ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठ कर खेल रहे थे उसी समय उनकी छोटी माता "सुरुचि" वहां पर आई और अपनी सौतन के पुत्र को पिता के साथ खेलते देख वो तिलमिला उठी।
उसी समय उन्होंने ध्रुव को उनकी गोद से खीचा और अपने पुत्र को उनकी गोद में बिठा कर कटाक्ष किया की तेरा ऐसा भाग्य कहा की पिता की गोद में बैठ सके.
तब बालक ध्रुव ने अपनी छोटी माता से पुछा की मेरे भाग्य का उदय किस प्रकार होगा ?
में किस प्रकार से अपने पिता की गोद में बैठ पाउँगा ?
माता सुरुचि ने व्यंग कर कहा की तेरे भाग्य का उदय तो अब केवल भगवान् श्री हरी ही कर सकते हैं उनकी तपस्या कर और उनसे वरदान मांग।
तब 5 वर्ष का बालक अपने नन्हे कोमल पैरो से वन की ओर बढ़ने लगा उसकी काया इतनी कोमल थी की रस्ते की धुप भी नहीं सह सकती थी वो बालक ध्रुव ने अपनी माता से आज्ञा लेकर वन की तरफ प्रस्थान कर गया और एक पेड़ के निचे जाकर भगवान् के भजन के विषय में सोचने लगे उस समय देव ऋषि नारद ध्रुव का मार्गदर्शन करने केलिए आये और उन्हें ॐ नमो नारायणाय का गुरु मंत्र दिया और अंतर्धयान हो गए।
गुरु से दीक्षा लेकर 5 वर्ष के प्रह्लाद ने अपनी तपस्या आरम्भ की और उनकी तपस्या इतनी घोर थी की जब वो प्राणवायु को अंदर खीचते तो समस्त सृस्टि की सम्पूर्ण वायु को अनपे भीतर खीच लेते और जब वायु को बहार की तराव छोड़ते तो भयंकर प्रलय ला देते।अपनी छोटी सी उम्र में उन्होंने बड़े-बड़े ऋषि और मुनियो को भी डरा दने वाला तप आरम्भ कर दिया वो अनपे तप की भीषण गर्मी से धरती को भी तापा देने लगे श्रिस्ति में स्थित जीवो में प्रलय आने का सा आभास होने लगा पशु पक्षी मारने लगे जीवो ने जंगलो का त्याग करना आरम्भ कर दिया और अपने पंजो पर खड़े होकर ध्रुव ने धरती को निचे धकेल देने का आभास करा दिया इतनी घोर तपस्या देख इंद्र का सिंघासन भी डोलने लगा और उसने अपनी माया से उत्पन्न राक्षसों को भेज ध्रुव की तपस्या को भांग करने की चेस्टा की लेकिन ध्रुव पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ.

और अत्यंत अल्प समय के घोर तप के बाद जब भगवान् ने दर्शन दिए तब भगवान् ने वर मांगने को कहा तो जगत पिता को अपने सम्मुख देख ध्रुव की सभी इन्द्रिय निष्क्रिय हो गई और वो भाव विभोर होकर कुछ न कह पाए आखो से अश्रु धारा बहने लगी मुख पर होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाने लगे सारा शरीर स्तब्ध होकर एक ही जगह पर जम सा गया तब अष्ट भुज चक्रधारी भगवान् ध्रुव के निकट आये और उन्हें अपनी गोद में बिठाया और अपने शंख को उनके मुह पर लगा उनके ज्ञान और इन्द्रियों को जाग्रत किया उसके पश्चात भगवान् बोले हे " भक्त में तुम्हारे अन्तःकरण की बात को जानता हूँ। तुम्हारी सभी इच्छायें पूर्ण होंगी। तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हे वह लोक प्रदान करता हूँ जिसके चारों ओर ज्योतिश्चक्र घूमता रहता है तथा जिसके आधार पर यह सारे ग्रह नक्षत्र घूमते हैं। प्रलयकाल में भी जिसका नाश नहीं होता। सप्तर्षि भी नक्षत्रों के साथ जिसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। तुम्हारे नाम पर वह ध्रुवलोक कहलायेगा।आकाश में स्टेव तुम्हारे नाम से तुम्हारे लोक की दीप्ती को देखा जा सकेगा। इस लोक में छत्तीस सहस्त्र वर्ष तक तुम पृथ्वी का शासन करेगा। समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अन्त समय में तुम मेरे लोक को प्राप्त करोगे।"
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