Saturday, 11 March 2017

श्री कृष्णा द्वारा असहिष्णुता का पाठ

पांडवो के द्वरा जुए से सबकुछ  हारने के बाद जब उन्हें 13 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास हुआ तब वो 14 वर्षो तक सबसे दूर रहते हुए 1 वर्ष का अज्ञातवास व्यतीत कर जब वापस आकर राज्य में अपने हिस्से केलिए उन्होंने दुर्योधन से कहा से हमें हमारा हिस्सा दो तब उन्होंने अपनी मांगे रखने के लिए श्री कृष्णा को अपना दूत बना कर दुर्योधन के समक्ष भेजा।
श्री कृष्णा द्वरा जब पांडवो के अभिकरो की बात रखी  तब दुर्योधन ने अज्ञानतावश श्री कृष्णा को एक ग्वाला समझ अपने सैनिको को उन्हें बंदी बना लेने का आदेश दिया। उस समय श्री कृष्णा ने दुरोशन के समक्ष ये विचार रखा था की पांडवो को उनके अधिकारों के अनुसार आधा राज्य दिया जाये इसपर दुर्योधन राजी नहीं हुआ इसके उपरांत श्री कृष्णा ने दुर्योधन के समक्ष 5 राज्य तथा 5 गाव के विषय तक में विचार करने के लिये कहा तो दुर्योधन ने कहा की में पांडवो को सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा और यदि इन्हें कुछ चाहिए तो आकर युद्ध कर ले और ले जाए।
महाभारत के उपरांत अर्जुन ने श्री कृष्णा से पुछा की प्रभु आप चाहते तो दुर्योधन को 5 गाव देने के लिए राजी कर सकते थे लेकिन आपने ऐसा किया क्यों नहीं ?
उत्तर में श्री कृष्णा बोले
पार्थ में तो तुम्हे केवल ये बताना चाह रहा था की तुम कितने भी सरल या साधु क्यों न हो यदि सर्प के से मित्रता करोगे तो वो तुम्हे विष के अतिरिक्त कुछ नहीं देगा।
मैंने दुर्योधन के आगे एक छोटी सी मांग 5 गाँवो की परन्तु यदि सामने वाले व्यक्ति ने मन में युद्ध की ही सोची हुई है तो तुम युद्ध से क्यों घबराते हो ?
यदि तुम्हारे अंदर सामर्थ्य है युद्ध करने का और तुम सही पक्ष में हो तो तुम कर्म करने से क्यों घबराते हो ?
पार्थ
यदि में चाहता तो युद्ध टल भी सकता था परंतु इस से दुर्योधन के अत्याचार अत्यधिक बढ़ जाते और वो तुम्हे कमजोर समझने लगता और अपने अत्याचारों को और बढ़ावा देता इस कारण उसके अत्याचारो का दमन करना आवश्यक था यदि में हथियार उठा लेता तो युद्ध पल भर में समाप्त कर देता इस से दुयोधन को कोई सिख नहीं मिलती तुमने युद्ध किया उसके पक्ष के सभी महारथियों को एक एक कर परास्त कर वीरगति की तरफ अग्रसर किया इस से उसका मनोबल टूटा और उसे मानसिक पीड़ा हुई जो वो सभी को पंहुचा रहा था और अंत में उसकी मृत्यु पीडयक हुई जो समाज केलिए एक उदाहरण बन कर सामने आई।
पर्थ जब कभी भी समाज में अपने ही नीचता पर अग्रसर हो तब उनके समक्ष आग्रह करना व्यर्थ होता है उस समय उन्हें दण्डित  करना ही उचित समाधान होता है इसकारण ये युद्ध तुम्हरे द्वारा लड़ा जाना आवश्यक हो गया था। 

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