महाभारत के भीषण युद्ध में एक समय जब कर्ण तथा अर्जुन एक दूसरे के सम्मुख शस्त्रो को लेकर खड़े थे उस समय श्री कृष्ण को अर्जुन केवल यह कहते हुए सुन रहे थे की वाह सूर्यपुत्र तुम्हारे शस्त्रो के परिचय के सम्मुख तो यहाँ सभी महारथी तुच्छ है ऐसा सुनकर अर्जुन अत्यंत ही कुपित होकर श्री कृष्ण से पूछते है की जब में कर्ण पर बाण चलता हूँ उस समय उसका रथ २०० कदम पीछे चला जाता है तथा जब वह अपने शस्त्रो से वार करता है उस समय मेरा रथ कुछ पग ही पीछे खिसकता है इसमें कर्ण का पराक्रम तो कम ही हुआ फिर भी आप उसकी प्रशंशा में अत्यंत ही प्रसन्न होते दिख रहे है ऐसा क्यों ?
श्री कृष्ण ने कहा की अर्जुन जब तुम कर्ण कर वार करते हो उस समय कर्ण अकेला ही तुमसे युद्ध कर रहा होता है वो भी बिना किस दैवीय शक्ति के और जब तुम कर्ण पर वार करते हो उस समय तुम्हरे रथ पर ध्वज बन कर स्वयं महावीर हनुमान बैठे होते है जो की अपनी शक्तियों से तुम्हारे रथ को पीछे हटने से रोकते है और तुम्हारे रथ के पहियो में शेषनाग लिपटे हुए है जो की रथ को पीछे की जगह आगे की ओर धकेलते है तुम्हारा रथ स्वयं श्री हरी चला रहे है वो सबसे बड़े सारथी है और इन सभी शक्तियों के बाद भी यदि तुम्हारा रथ पीछे खिसकता है तो इसमें कर्ण का पराक्रम ही है और तुम्हरी शक्तियों पर संदेह।तुम सभी शक्तियों और अस्त्रो के ज्ञाता हो परंतु तुम कर्ण के सामान तेजस्वी नहीं हो तुम्हरे पास दैवीय गुणों वाला धनुष गांडीव है तुम्हारे अस्त्र भवन शिव के द्वारा रक्षित है अस्त्रो से केवल देह को कटा जा सकता है परंतु कर्ण की देह को काटने के बाद भी उसके पराक्रम को काट पाना असंभव है कर्ण स्वयं में एक सेना है।कर्ण का पराक्रम उसके कवच और कुंडल में नहीं था उसका पराक्रम उसके संकल्प और परिश्रम में है।
यदि तुम कर्ण मार भी देते हो तो इसमें तुम्हारा कोई पराक्रम नहीं है। कर्ण की मृत्यु निश्चित है परंतु तुम उस मृत्यु के केवल एक कारण हो तुम अकेले कर्ण को कभी मार ही नहीं सकते। यदि तुम अकेले ऐसा करने की सोचते भी हो तो अगले ही पल तुम मृत्यु से आलंगित हो चुके होंगे।कर्ण का प्रताप देखे बनता है कर्ण से तुम्हारी रक्षा के लिए स्वयं देवराज इंद्र को भिक्षा लेने केलिए कर्ण के सम्मुख आना पड़ा तथा कर्ण को यह ज्ञात होते हुए भी की वो दान में उसका जीवन मांगने आये है तब भी बिना विलम्भ किए उन्होंने दान किया। युद्ध के 17 वें दिन जब कर्ण का पराक्रम और क्रोध अपनी ऊंचाइयों पर था उस समय उनके समख आये चारो पांडवो को कर्ण के भली प्रकार रक्त-रंजीत कर लहू का स्वाद चखा दिया था उसी में कही न कही कर्ण ने यह भी बता दिया था की यदि कर्ण को जल्दी ही नहीं मारा गया तो परिणाम क्या हो सकता है। कर्ण का अपनी माता कुंती को दिया गया वचन ही केवल एक ऐसा बंधन था जिसके कारण कर्ण ने अर्जुन के अन्यत्र चारो पांडवो को लहूलुहान कर जीवित रहने दिया था अन्यथा वह महावीर अपने विजय धनुष से किसी के भी प्राण हरने में सक्षम था।
यदि तुम कर्ण मार भी देते हो तो इसमें तुम्हारा कोई पराक्रम नहीं है। कर्ण की मृत्यु निश्चित है परंतु तुम उस मृत्यु के केवल एक कारण हो तुम अकेले कर्ण को कभी मार ही नहीं सकते। यदि तुम अकेले ऐसा करने की सोचते भी हो तो अगले ही पल तुम मृत्यु से आलंगित हो चुके होंगे।कर्ण का प्रताप देखे बनता है कर्ण से तुम्हारी रक्षा के लिए स्वयं देवराज इंद्र को भिक्षा लेने केलिए कर्ण के सम्मुख आना पड़ा तथा कर्ण को यह ज्ञात होते हुए भी की वो दान में उसका जीवन मांगने आये है तब भी बिना विलम्भ किए उन्होंने दान किया। युद्ध के 17 वें दिन जब कर्ण का पराक्रम और क्रोध अपनी ऊंचाइयों पर था उस समय उनके समख आये चारो पांडवो को कर्ण के भली प्रकार रक्त-रंजीत कर लहू का स्वाद चखा दिया था उसी में कही न कही कर्ण ने यह भी बता दिया था की यदि कर्ण को जल्दी ही नहीं मारा गया तो परिणाम क्या हो सकता है। कर्ण का अपनी माता कुंती को दिया गया वचन ही केवल एक ऐसा बंधन था जिसके कारण कर्ण ने अर्जुन के अन्यत्र चारो पांडवो को लहूलुहान कर जीवित रहने दिया था अन्यथा वह महावीर अपने विजय धनुष से किसी के भी प्राण हरने में सक्षम था।
कर्ण मृत्यु से सदैव निर्भीक रहे थे उन्हें ब्रम्हास्त्र तक की भी कोई चिंता नहीं थी यद्यपि उन्हें शाप था की वो अपनी विद्या को भूल जायेंगे तब भी युद्ध आकर उन्होंने अपने पराक्रम का ही परिचय दिया है।
कर्ण ने ही कोरवो की सेना को घटोत्कच से बचाया था यदि कर्ण न होता तो युद्ध पहले ही समाप्त हो चुका होता। गुरु परशुराम जी ने उन्हें शाप के साथ-साथ विजय धनुष भी दिया है जिसके सम्मुख तुम्हारा गांडीव धनुष व्यर्थ है जब तक कर्ण के हाथो में विजय धनुष है तब तक तुम्हारे बाण कर्ण को स्पर्श भी नहीं कर सकते इस लिए कर्ण को निहत्था मरना ही एकमात्र उपाय है।
कर्ण ने ही कोरवो की सेना को घटोत्कच से बचाया था यदि कर्ण न होता तो युद्ध पहले ही समाप्त हो चुका होता। गुरु परशुराम जी ने उन्हें शाप के साथ-साथ विजय धनुष भी दिया है जिसके सम्मुख तुम्हारा गांडीव धनुष व्यर्थ है जब तक कर्ण के हाथो में विजय धनुष है तब तक तुम्हारे बाण कर्ण को स्पर्श भी नहीं कर सकते इस लिए कर्ण को निहत्था मरना ही एकमात्र उपाय है।