Saturday, 25 March 2017

युद्ध कर्ण तथा अर्जुन

महाभारत के भीषण युद्ध में एक समय जब कर्ण तथा अर्जुन एक दूसरे के सम्मुख शस्त्रो को लेकर खड़े थे उस समय श्री कृष्ण को अर्जुन केवल यह कहते हुए सुन रहे थे की वाह सूर्यपुत्र तुम्हारे शस्त्रो के परिचय के सम्मुख तो यहाँ सभी महारथी तुच्छ है ऐसा सुनकर अर्जुन अत्यंत ही कुपित होकर श्री कृष्ण से पूछते है की जब में कर्ण पर बाण चलता हूँ उस समय उसका रथ २०० कदम पीछे चला जाता है तथा जब वह अपने शस्त्रो से वार करता है उस समय मेरा रथ कुछ पग ही पीछे खिसकता है इसमें कर्ण का पराक्रम तो कम ही हुआ फिर भी आप उसकी प्रशंशा में अत्यंत ही प्रसन्न होते दिख रहे है ऐसा क्यों ?
श्री कृष्ण ने कहा की अर्जुन जब तुम कर्ण कर वार करते हो उस समय कर्ण अकेला ही तुमसे युद्ध कर रहा होता है वो भी बिना किस दैवीय शक्ति के और जब तुम कर्ण पर वार करते हो उस समय तुम्हरे रथ पर ध्वज बन कर स्वयं महावीर हनुमान बैठे होते है जो की अपनी शक्तियों से तुम्हारे रथ को पीछे हटने से रोकते है और तुम्हारे रथ के पहियो में शेषनाग लिपटे हुए है जो की रथ को पीछे की जगह आगे की ओर धकेलते है तुम्हारा रथ स्वयं श्री हरी चला रहे है वो सबसे बड़े सारथी है और इन सभी शक्तियों के बाद भी यदि तुम्हारा रथ पीछे खिसकता है तो इसमें कर्ण का पराक्रम ही है और तुम्हरी शक्तियों पर संदेह।तुम सभी शक्तियों और अस्त्रो के ज्ञाता हो परंतु तुम कर्ण के सामान तेजस्वी नहीं हो तुम्हरे पास दैवीय गुणों वाला धनुष गांडीव है तुम्हारे अस्त्र भवन शिव के द्वारा रक्षित है अस्त्रो से केवल देह को कटा जा सकता है परंतु कर्ण  की देह को काटने के बाद भी उसके पराक्रम को काट पाना असंभव है कर्ण स्वयं में एक सेना है।कर्ण का पराक्रम उसके कवच और कुंडल में नहीं था उसका पराक्रम उसके संकल्प और परिश्रम में है।
यदि तुम कर्ण मार भी देते हो तो इसमें तुम्हारा कोई पराक्रम नहीं है। कर्ण की मृत्यु निश्चित है परंतु तुम उस मृत्यु के केवल एक कारण हो तुम अकेले कर्ण को कभी मार ही नहीं सकते। यदि तुम अकेले ऐसा करने की सोचते भी हो तो अगले ही पल तुम मृत्यु से आलंगित हो चुके होंगे।कर्ण का प्रताप देखे बनता है कर्ण से तुम्हारी रक्षा के लिए स्वयं देवराज इंद्र को भिक्षा लेने केलिए कर्ण के सम्मुख आना पड़ा तथा कर्ण को यह ज्ञात होते हुए भी की वो दान में उसका जीवन मांगने आये है तब भी बिना विलम्भ किए उन्होंने दान किया। युद्ध के 17 वें दिन जब कर्ण का पराक्रम और क्रोध अपनी ऊंचाइयों पर था उस समय उनके समख आये चारो पांडवो को कर्ण के भली प्रकार रक्त-रंजीत कर लहू का स्वाद चखा दिया था उसी में कही न कही कर्ण ने यह भी बता दिया था की यदि कर्ण को जल्दी ही नहीं मारा गया तो परिणाम क्या हो सकता है। कर्ण का अपनी माता कुंती को दिया गया वचन ही केवल एक ऐसा बंधन था जिसके कारण कर्ण ने अर्जुन के अन्यत्र चारो पांडवो को लहूलुहान कर जीवित रहने दिया था अन्यथा वह महावीर अपने विजय धनुष से किसी के भी प्राण हरने में सक्षम था।
कर्ण मृत्यु से सदैव निर्भीक रहे थे उन्हें ब्रम्हास्त्र  तक की भी कोई चिंता नहीं थी यद्यपि उन्हें शाप था की वो अपनी विद्या को भूल जायेंगे तब भी युद्ध आकर उन्होंने अपने पराक्रम का ही परिचय दिया है।
कर्ण  ने ही कोरवो की सेना को घटोत्कच से बचाया था यदि कर्ण न होता तो युद्ध पहले ही समाप्त हो चुका होता। गुरु परशुराम जी ने उन्हें शाप के साथ-साथ विजय धनुष भी दिया है जिसके सम्मुख तुम्हारा गांडीव धनुष व्यर्थ है जब तक कर्ण के हाथो में विजय धनुष है तब तक तुम्हारे बाण कर्ण को स्पर्श भी नहीं कर सकते इस लिए कर्ण को निहत्था मरना ही एकमात्र उपाय है। 

Saturday, 18 March 2017

ध्रुव की तपस्या


भक्त के लिए भगवान् नंगे पैर भी भागे चले आते है लेकिन एक ऐसा भी भक्त हुआ है जिसने भगवान् को आने पर विवश कर दिया था।
माता सुनीति और पिता उत्तानपात की संतान "ध्रुव" जब पांच वर्ष की आयु के थे तब एक दिन बालक ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठ कर खेल रहे थे उसी समय उनकी छोटी माता "सुरुचि" वहां पर आई और अपनी सौतन के पुत्र को पिता के साथ खेलते देख वो तिलमिला उठी।
उसी समय उन्होंने ध्रुव को उनकी गोद से खीचा और अपने पुत्र को उनकी गोद में बिठा कर कटाक्ष किया की तेरा ऐसा भाग्य कहा की पिता की गोद में बैठ सके.
तब बालक ध्रुव ने अपनी छोटी माता से पुछा की मेरे भाग्य का उदय किस प्रकार होगा ?
में किस प्रकार से अपने पिता की गोद में बैठ पाउँगा ?
माता सुरुचि ने व्यंग कर कहा की तेरे भाग्य का उदय तो अब केवल भगवान् श्री हरी ही कर सकते हैं उनकी तपस्या कर और उनसे वरदान मांग।
तब 5 वर्ष का बालक अपने नन्हे कोमल पैरो से वन की ओर  बढ़ने लगा उसकी काया इतनी कोमल थी की रस्ते की धुप भी नहीं सह सकती थी वो बालक ध्रुव ने अपनी माता से आज्ञा लेकर वन की तरफ प्रस्थान कर गया और एक पेड़ के निचे जाकर भगवान् के भजन के विषय में सोचने लगे उस समय देव ऋषि नारद ध्रुव का मार्गदर्शन करने केलिए आये और उन्हें ॐ नमो नारायणाय का गुरु मंत्र दिया और अंतर्धयान हो गए।

 


गुरु से दीक्षा लेकर 5 वर्ष के प्रह्लाद ने अपनी तपस्या आरम्भ की और उनकी तपस्या इतनी घोर थी की जब वो प्राणवायु को अंदर खीचते तो समस्त सृस्टि की सम्पूर्ण वायु को अनपे भीतर खीच लेते और जब वायु को बहार की तराव छोड़ते तो भयंकर प्रलय ला देते।अपनी छोटी सी उम्र में उन्होंने बड़े-बड़े ऋषि और मुनियो को भी डरा दने वाला तप आरम्भ कर दिया वो अनपे तप की भीषण गर्मी से धरती को भी तापा देने लगे श्रिस्ति में स्थित जीवो में प्रलय आने का सा आभास होने लगा पशु पक्षी मारने लगे जीवो ने जंगलो का त्याग करना आरम्भ कर दिया और अपने पंजो पर खड़े होकर ध्रुव ने धरती को निचे धकेल देने का आभास करा दिया इतनी घोर तपस्या देख इंद्र का सिंघासन भी डोलने लगा और उसने अपनी माया से उत्पन्न राक्षसों को भेज ध्रुव की तपस्या को भांग करने की चेस्टा की लेकिन ध्रुव पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ.



और अत्यंत अल्प समय  के घोर तप के बाद जब भगवान् ने दर्शन दिए तब भगवान् ने वर मांगने को कहा तो जगत पिता को अपने सम्मुख देख ध्रुव की सभी इन्द्रिय निष्क्रिय हो गई और वो भाव विभोर होकर कुछ न कह पाए आखो से अश्रु धारा बहने लगी मुख पर होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाने लगे सारा शरीर स्तब्ध होकर एक ही जगह पर जम सा गया तब अष्ट भुज चक्रधारी भगवान् ध्रुव के निकट आये और उन्हें अपनी गोद में बिठाया  और अपने शंख को उनके मुह पर लगा उनके ज्ञान और इन्द्रियों को जाग्रत किया उसके पश्चात भगवान् बोले हे " भक्त में तुम्हारे अन्तःकरण की बात को जानता हूँ। तुम्हारी  सभी इच्छायें पूर्ण होंगी। तुम्हारी  भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हे वह लोक प्रदान करता हूँ जिसके चारों ओर ज्योतिश्चक्र घूमता रहता है तथा जिसके आधार पर यह सारे ग्रह नक्षत्र घूमते हैं। प्रलयकाल में भी जिसका नाश नहीं होता। सप्तर्षि भी नक्षत्रों के साथ जिसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। तुम्हारे नाम पर वह ध्रुवलोक कहलायेगा।आकाश में स्टेव तुम्हारे नाम से तुम्हारे लोक की दीप्ती को देखा जा सकेगा। इस लोक में छत्तीस सहस्त्र वर्ष तक तुम पृथ्वी का शासन करेगा। समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अन्त समय में तुम मेरे लोक को प्राप्त करोगे।"

Monday, 13 March 2017

विधाता ही सर्वोपरी है

एक समय भगवान् विष्णु का वाहन गरुड़ भगवान् के द्वार पर खड़ा था उस समय वो कल्पवृक्ष के विषय में सोच रहा था। कल्पवृक्ष एक ऐसा वृक्ष है जो सभी कल्पनाओ के सच कर सकता है तथा उसके निचे आने वाले सभी जीवो की कल्पना सत्य होती है। गरुड़ कालवृक्ष से कुछ दूरी पर स्थित होकर भगवान् के द्वार के निकट ऐसा सोच रहा था की भगवान् कितने कृपालु है सब पर कृपा करते है और अत्यंत ही दयालु है।
उसी समय वहाँ पर एक चिड़िया दिखती है जिसकी हालात अत्यंत ही गंभीर होती है जो की मृत्यु के अत्यंत ही समीप होती है उसकी इस दशा को देख कर गरुड़ को उस पर दया आ जाती है और सुको बीमार समझ कर वो जैसे निकट नजर घूमाते है उनको यमराज दिखाई पड़ते है जो की उस चिड़िया को देख रहे होते है गरुड़ तुरंत ही समझ जाता है की यमराज उसके प्राण लेने आये हैं।
गरुड़ उनके कुछ भी करने से पहले चिड़िया को अपने पंजो में दबा पर दूर उदा जाता है और उस चिड़िया को सुमेरु पर्वत पर छोड आता है। तब वापस आकर जब गरुड़ यमदेव को देखता है तो वो मुस्कुराते है और कहते है की गरुड़ मेरा यहाँ पर आने का उद्देश्य भगवान् श्री हरी से मिलना था और जब मैंने उस चिड़िया को यहाँ तड़पते हुए देखा और उसकी मृत्यु देखि तो मैंने देखा की कुछ ही पल में उसकी मृत्यु सैकड़ो मील दूर सुमेरु पर्वत पर सर्प द्वारा निगले जाने से होगी तो में यह सोच कर आश्चर्य चकित हो रहा था की ये छोटी सी चिड़िया इतने कम समय में इतनी दूरी कैसे तय करगी ?
और उसके बाद मैंने वो सब देखा जो तुम्हें अज्ञानता में किया।
इसमें भी प्रभु की ही इच्छा ही हम सभी तो एक कारण मात्र है इन सब कर्मो में। 

Saturday, 11 March 2017

श्री कृष्णा द्वारा असहिष्णुता का पाठ

पांडवो के द्वरा जुए से सबकुछ  हारने के बाद जब उन्हें 13 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास हुआ तब वो 14 वर्षो तक सबसे दूर रहते हुए 1 वर्ष का अज्ञातवास व्यतीत कर जब वापस आकर राज्य में अपने हिस्से केलिए उन्होंने दुर्योधन से कहा से हमें हमारा हिस्सा दो तब उन्होंने अपनी मांगे रखने के लिए श्री कृष्णा को अपना दूत बना कर दुर्योधन के समक्ष भेजा।
श्री कृष्णा द्वरा जब पांडवो के अभिकरो की बात रखी  तब दुर्योधन ने अज्ञानतावश श्री कृष्णा को एक ग्वाला समझ अपने सैनिको को उन्हें बंदी बना लेने का आदेश दिया। उस समय श्री कृष्णा ने दुरोशन के समक्ष ये विचार रखा था की पांडवो को उनके अधिकारों के अनुसार आधा राज्य दिया जाये इसपर दुर्योधन राजी नहीं हुआ इसके उपरांत श्री कृष्णा ने दुर्योधन के समक्ष 5 राज्य तथा 5 गाव के विषय तक में विचार करने के लिये कहा तो दुर्योधन ने कहा की में पांडवो को सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा और यदि इन्हें कुछ चाहिए तो आकर युद्ध कर ले और ले जाए।
महाभारत के उपरांत अर्जुन ने श्री कृष्णा से पुछा की प्रभु आप चाहते तो दुर्योधन को 5 गाव देने के लिए राजी कर सकते थे लेकिन आपने ऐसा किया क्यों नहीं ?
उत्तर में श्री कृष्णा बोले
पार्थ में तो तुम्हे केवल ये बताना चाह रहा था की तुम कितने भी सरल या साधु क्यों न हो यदि सर्प के से मित्रता करोगे तो वो तुम्हे विष के अतिरिक्त कुछ नहीं देगा।
मैंने दुर्योधन के आगे एक छोटी सी मांग 5 गाँवो की परन्तु यदि सामने वाले व्यक्ति ने मन में युद्ध की ही सोची हुई है तो तुम युद्ध से क्यों घबराते हो ?
यदि तुम्हारे अंदर सामर्थ्य है युद्ध करने का और तुम सही पक्ष में हो तो तुम कर्म करने से क्यों घबराते हो ?
पार्थ
यदि में चाहता तो युद्ध टल भी सकता था परंतु इस से दुर्योधन के अत्याचार अत्यधिक बढ़ जाते और वो तुम्हे कमजोर समझने लगता और अपने अत्याचारों को और बढ़ावा देता इस कारण उसके अत्याचारो का दमन करना आवश्यक था यदि में हथियार उठा लेता तो युद्ध पल भर में समाप्त कर देता इस से दुयोधन को कोई सिख नहीं मिलती तुमने युद्ध किया उसके पक्ष के सभी महारथियों को एक एक कर परास्त कर वीरगति की तरफ अग्रसर किया इस से उसका मनोबल टूटा और उसे मानसिक पीड़ा हुई जो वो सभी को पंहुचा रहा था और अंत में उसकी मृत्यु पीडयक हुई जो समाज केलिए एक उदाहरण बन कर सामने आई।
पर्थ जब कभी भी समाज में अपने ही नीचता पर अग्रसर हो तब उनके समक्ष आग्रह करना व्यर्थ होता है उस समय उन्हें दण्डित  करना ही उचित समाधान होता है इसकारण ये युद्ध तुम्हरे द्वारा लड़ा जाना आवश्यक हो गया था। 

Monday, 6 March 2017

असम में धर्म परिवर्तन का धंधा

हर हर महादेव !!

भारत के सभी राज्यो का स्वतंत्रता के बाद से ही अत्यंत ही तीव्र गति से विकास होना आरम्भ हुआ था परंतु भारत के उत्तर पूर्वी राज्यो के साथ ऐसा कुछ नहीं हो पाया है आज के आधुनिक समय में भी असम,अरुणाचल,सिक्कीम के लोग स्वयं को भारत से कटा हुआ समझते है और गरीबी तथा अशिक्षा ने ऐसा पैर फैलाया है की दंगो का निज ताँता लगा रहता था। पूर्व काल में भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी भी वह से राज्यसभा के संसद रह चुके है तब भी वह पर विकास की कोई लहार तनिक मात्रा भी दिखाई नहीं दी।
अंग्रेजो के समय से ही अरुणाच भारत का पर्यटन स्थल रहा है परंतु अंग्रेजो  का वह पर रहना तथा विकास करना वहां के निवासियों की भलाई के लिए नहीं था अपितु स्वयं की भलाई के लिए था। जब भारत में इंग्लैंड वासी आये तथा उन्होंने भारत की जलवायु को देखा तो उन्हें आभास हो गया की ऐसी जलवायु में अधिक दिन जीवित रह पाना किसी चुनोती से अलग नहीं है। उस समय पर अंगेजो ने भारत में राज करने के लिए एक अलग योजना के विषय में सोचा तथा भारत के ठन्डे क्षेत्रो में अपने निवास स्थान और कार्यालयों को प्रभुत्व दिया जिस से उन्हें भारत की जलवायु में रहने का आदि बनने में सुगमता हो।
इसी के साथ उन्होंने आरम्भ किया भारत में धर्म परिवर्तन का धंधा आरम्भ में धर्म परिवर्तन पैसो के बदले तथा चिकित्सा के बदले में किया जाता था। यदि कोई व्यक्ति ज्वर से तड़प रहा है तथा वह हिन्दू है तो उसका निरिक्षण केवल और केवल तभी किया जायेगा जब वो ईसाई बन जायेगा इस मध्य चाहे वह व्यक्ति पीड़ा से मर ही क्यों न जाये लेकिन पूर्णतः ईसाई बनाने के बाद ही उसका निरिक्षण किया जाये ऐसा अंग्रेजो ने नियम बना लिया तथा ईसाई बनाने के बाद अत्यंत ही सुगमता से सुख सुविधा उपलब्ध कराइ जाने लगी जिससे लोगो का ईसाइयत के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा तथा लोगो ने अपना धर्म त्यागना आरम्भ कर दिया।
अंग्रेजो ने भले ग्रामवासियो को यह तक पाठ पढ़ाया की तुम जिस प्रकार से ईश्वर की वंदना करते हो वह तरीका गलत है यदि तुम अंग्रेजी में ईश्वर की वंदना करोगे तब तुम्हे कोई भी कष्ट नहीं होगा और ईश्वर भी तुम्हारे साथ होगा। उन्होंने सभी दुखो का कारण केवल गलत ईश्वर की उपासना तथा गलत तरीके का उपयोग किया जाना बता दिया। भारतीयों ने अपने अत्यंत ही क्रूर उत्पीडन के बाद ये समझ लिया की वो सच में गलत ईश्वर तथा गलत तरीके से ईश्वर की वंदना कर रहे है।
इसके बाद यदि किसी भारतीय को उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना हो तो उसे पहेल अपना धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनना पड़ता था। आज के समय में भी ईसाई संस्थानों ने अपने पैर जमाये हुए है किसी भी प्रकार की आपदा प्राकतिक या फिर मानवनिर्मित आने पर इनका प्रथम कर्तव्य है "बाइबिल" बाँटना और लोगो को ये समझाना की दवाइयों से कुछ ठीक नहीं होता जो ठीक होता है वो केवल "प्रभु यीशु" से प्रार्थना करने से होता है।  आपदा से त्रस्त लोगो की भूख बाइबिल के पृष्ठ मिटायेंगे और घावों पर पट्टी की जगह उन्ही पृष्ठों को आसुओ में भिगो कर लपेटने से शारीरिक कष्ट दूर होगा। यदि कोई व्यक्ति गलती से चिकित्सालय पहुच भी जाये तो तड़प से प्राण त्यागने को आतुर होने पर उसे बाइबिल  लिखित ईश्वर वाणी सुनाई जाएगी जिस से उसकी पीड़ा कम ओ जाएगी और वह एकदम स्वस्थ होगा। मानव शरीर को कोई भी पीड़ा प्रभु यीशु की पीड़ा के समक्ष कुछ नहीं है ऐसा बता कर उनकी पीड़ा का मजाक बनाया जाता है।
प्रत्येक वर्ष लाखो करोड़ की विदेशी मुद्रा केवल इस लिए भारत में आती है जिस से भारत में रहने वाले हिन्दुओ को धर्मान्तरित कर ईसाई बनाया जा सके और भारत में ईसाइयत का प्रचार और प्रसार किया जा सके असम में सरकार का कोई भी हताक्षेप न होने के कारण वहाँ पर यह धंधा बिना किसी रोक टोक के चल रहा है क्योके सरकार वहाँ पर कोई विकास करना नहीं चाहती और ईसाई मिशनरिया वह पर अपने विद्यालयों और अस्पतालों का निर्माण कर उनमे इस काम को भली भाती चला रही है। कांग्रेस सरकार ने इस धंधे को बढ़ावा भी दिया था जिस से विदेशो में जमीन और विदेशी बैंको में धन प्राप्त हुआ उन्हें और मंदिरो को तुड़वा कर वह पर किसी परियोजना का बहाना बना कर धर्म का नाश करना तथा उन जगहों पर गिरजाघरों का निर्माण करना उनकी प्रवत्ति बन चुका था। उत्तराखंड में भी कुछ इसी प्रकार का निर्माण करने के बहाने से विश्वनाथ मंदिर का कुछ हिस्सा तोड़े जाने की वजह से उत्तराखंड में त्रासदी आना। धर्म विशेष के प्रति घृणा की भावना रखना तथा स्वयं के स्वार्थ के लिए कार्य करना केवल धन केलिए ये कोंग्रेस की नीति बन गई है।

Saturday, 4 March 2017

स्वयंभू की नगरी लंका

सभी श्रुतियो और लिपियों  के अनुसार देवादिदेव महादेव पर्वतो पर रहकर अपने जीवन को व्यतीत करते है और माता पार्वती वही पर उनकी सेवा कर अपने जीवन को सुखपूर्ण यापन करती हैं परंतु एक समय देवी लक्ष्मी जी ने देवी पार्वती को बैकुंठ स्थित अपने लोक के दर्शन के लिए बुलाया और वहाँ की छठा और आभा को देख देवी पार्वती मोहित हो गई।वापस आकार देवी पार्वती ने भगवान् भोलेनाथ से कहा की वो ऐसे जंगलो और पहाड़ो पर रहकर खुश नहीं है उन्हें भी एक नगरी चाहिए को बैकुंठ के सामान हो जहा पर सभी वस्तुएं स्वर्ण निर्मित हों और वो देवी लक्ष्मी को दिखा सकें।
ऐसा देख स्वयंभू ने कहा कि देवी यदि हमारे भाग्य में कोई नगरी होती तो हम ऐसे स्थान पर क्यों रहते? में एक योगी हूँ जो चिरकाल तक योग और तपस्या में अपना जीवन व्यतीत करता है उसे घर और विलासिता की क्या आवश्यकता ?
तुम मेरी बात मानो और ऐसे विचार त्याग दो ।परंतु देवी तो हठ कर के ही आई थी तो स्वयंभू ने कहा कि ठीक है यदि नहीं मानती हो तो अभी देवशिल्पी विश्वकर्मा को बुला कर मैं आपका आग्रह पूर्ण करता हूँ परंतु में अभी भी कह रहा हु कीकी हमारे भाग्य में विलासिता नहीं है।ऐसा कह कर देवशिल्पी को बुला कर भगवान् भोलेनाथ ने कहा कि महाराज ऐसे राज्य का निर्माण कीजिये जैसा कही ना ही और उसका स्थान अत्यन्त ही मनोहर और रमणीय हो उसमे नानां प्रकार के वृक्ष बगीचे ही ऐसी सड़को का निर्माण कीजिये जो कभी भी ख़राब ना हो महल का निर्माण अत्यन्त ही कुशल शिल्पियों द्वारा कराएं और किसी भी प्रकार की कोई त्रुटि ना हो महल का निर्माण केवल स्वर्ण से हो इसके अन्यत्र कोई भी धातु न प्रयोग की जाये सभी वस्तुएँ स्वर्ण की हो उसके अन्यत्र कोई धातु न हो।ऐसा आदेश प्राप्त कर विश्वकर्मा जी ने एक रात में स्वर्ण नगरी लंका का निर्माण किया और प्रभु को गृहप्रवेश के लिए हवन करने को कहकर आज्ञा लेकर चले गए।
हवन के लिए महादेव जी ने उस समय के प्रकांड ब्राह्मण श्री विश्रवा जी से आग्रह किया परंतु ऋषि ने अपना समय किसी और के यहाँ यज्ञ होने के कारण से अपने पुत्र रावण के आने का आश्वासन दिया।
भोलेनाथ ने भविष्य की होने वाली घटना को देख कर माता पार्वती को अपने पिता श्री के घर निमंत्रण देने भेज दिया और उनकी अनुपस्थिति में यज्ञ आरम्भ कराया ।
यज्ञ संपन्न होने के बाद जब स्वयम्भू ने दक्षिणा के लिए रावण को पूछा तो रावण ने 2 आग्रह किये पहला था स्वर्ण नगरी लंका और दूसरा था माता पार्वती।
स्वर्ण नगरी लंका को यह कह कर दान कर दिया की मुझे पता था कि हमारे भाग्य में विलासिता नहीं है और माता पार्वती को यह कह दिया की वो मेरे वश की बात नहीं है।
इतने में पर्वती ने आकर यह सब देखकर रावण को यह शाप दे दिया की यही नगरी जल कर राख बनेगी और रूद्र के अंश द्वारा ही ऐसा होगा तेरी राक्षस प्रवत्ति के कारण तू अब राक्षस कुल में रहेगा और तेरे कर्म दिन प्रतिदिन नीच होते जायेंगे और यही तेरी मृत्यु का कारण बनेंगे।