Monday, 30 January 2017

संघ : सेवा तथा त्याग



संघ का पूर्ण नाम रसिया स्वयं सेवक संघ है इसे RSS के नाम से अधिक जाना जाता है। संपूर्ण विश्व में ये सबसे बड़ी सेवा प्रणाली है जो की बिना किसी वेतन के देश सेवा और समाज कल्याण के कार्यो में कार्यरत है। इनका मुख्य कार्य दैनिक प्रतिदिन की दिनचर्या को सुगम बना प्रत्येक जन को निरोगी बनाना है और एक शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण करना है। प्रत्येक दिन का आरंभ संघ में सुबह की वंदना से होता है वंदना में भारत माता को साक्षी मान कर यह वचन लिया जाता है की एक संघी भारत में रहने वाले प्रत्येक बंधू का सहयोग निष्काम भाव से करेगा और यदि किसी भी बंधू पर कोई विपत्ति आती है तो वह उस समय सहयोग करेगा। संघ के लोग किसी भी जाती या भरम को बड़ा या छोटा नहीं मानते ये सभी का स्वागत खुले मन और विचारो से करते है। इनकी दैनिक रीती वैदिक पद्धत्ति से होने के कारन विरोधी जन इन्हे कुछ ज्यादा पसंद नहीं करते परन्तु अपने लाखो विरोधी होने के बाद भी संघ ने देश को अत्यंत ही महानुभाव लोग दिए है।  राष्ट्र सेवा संघ की विरासत है संघ का निर्माण करने के पीछे उद्देश्य भी यही था की राष्ट्र हित में यदि कोई असामाजिक शक्ति अपना वर्चस्व दिखा कर गैर संविधानिक गतिविधियों पर जोर देती है उसका दमन करने के लिए संघ संविधानिक तरीके से अग्रसर रहेगा। संघ में दैनिक वंदना के पश्चात व्यायाम किया जाता है जो शारीरिक बल में वृद्धि के लिए है और उसके पश्चात खेलो का आयोजन होता है। खेलो के बाद दैनिक विषयो पर वार्तालाप की जाती यदि किसी को कोई मुश्किल है या किसी प्रकार का कष्ट है तो उसके निवारण के उपाय के विषय में सभी के द्वारा उनकी प्रतिक्रिया देखि जाती है। स्वतंत्रता सेनानियो और हमारे पूर्वजो के द्वारा दिए गए योगदान के विषय में चाचा की जाती है और १ घंटे की इस प्रक्रिया के बाद सभी जन अपने निवास स्थान के लिए प्रस्थान करते है यह कहकर की कल फिर मिलेंगे और भारत को स्वस्थ और सदृढ़ बनाएंगे।
भारत में किसी भी प्रकार की आपदा आने पर संघ के कार्यकर्ता बिना किसी निमंत्रण के अपना सहयोग देने पहुच जाते है चाहे वह रेल दुर्घटना हो या बूम विस्फोट या उत्तराखंड में आए बढ़ त्रासदी संघीय ने अपनी सेवा का परचम सुनामी तक में दिखाया है अपने जीवन की चिंता किये बिना ये एक प्रचारक के रूप में अपना पूरा जीवन अपने घर से दूर और अपने सेज सम्बन्धियो से धूर रह कर भी व्यतीत कर देते है। कुछ क्षेत्रो में संघ की सेवा से इतनी ग्रहण है की वह पर प्रचारको की हत्या भी करा दी गई है। संघ किसी भी धर्म या समुदाय के प्रति घृणा का भाव नहीं रखता परंतु संघ की सेवाओ से संघ के बढ़ते वर्चस्व को देख कर असामाजिक तत्वों ने इन्हें निशाना बनाना आरम्भ कर दिया है। केरल में कुछ मिशनरियो के द्वार ये अधिक है और कर्णाटक में यह अत्यधिक है. . . . . . . . . . . .

शेष भाग २

Saturday, 28 January 2017

मृत्यु शैय्या पर भीष्म


पितामहः भीष्म जब इच्छा मृत्यु का प्रण लेकर मृत्यु शय्या पर अपनी मृत्यु को रोक कर लेते हुए  थे उस समय पर भीष्म के मन में यह बात कोंध गई की मेरी इस गति का कारण क्या है?
यद्यपि मैंने इस जनम में कोई गलत कार्य नहीं किया और ना ही गलत का साथ दिया वह तो केवल अपने वचन की बाध्यता को निभा रहे थे।
फिर भी उन्होंने अपने ज्ञान से यह पता लगा लिया की कोई भी बुरा कर्म उन्हें ऐसी मृत्यु नहीं दे सकता है अवश्य ही कोई पिछले जन्म का कर्म था जो उन्हें इस अवस्था में लाया है।
जिस प्रकार से उन्होंने अपने तपोबल से रणभूमि में श्री हरि के  विराट रूप को देखा था
उसी तपोबल के प्रयोग से वो अपने पूर्व जन्मों के कर्मो को देखने में सक्षम थे।
सक्षम होना ही काफी नहीं था उनकी जिज्ञासा ही ऐसी एकमात्र वस्तु थी जिसने उन्हें पूर्व जनम देखने को विवश किया।
अपने अंतिम समय में उन्होंने सभी को ज्ञान दिया और अपने पापो को गिना यही उनके जीवन का सार है जब उन्होंने अपने कर्मो का संज्ञान लेना आरम्भ किया तब उन्हीने पाया कि कोई भी ऐसा कर्म नहीं था जिसके कारण उन्हें ऐसी गति प्राप्त हो न ही ऐसा जोई शाप लगा जिस से उन्हें मृत्यु के इतना निकट रहते हुए भी प्राण त्यागने की अनुमति ना मिले ।
स्वर्ग में स्थित शांतनु की दिव्य आत्मा ये सब देख कर रुंध गई थी और उन्होंने स्वर्ग के सभी भोग विलास ऐश्वर्या को त्याग करना आरम्भ कर दिया था और स्वयं को कोसने लगे थे की क्यों उन्होंने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया?
जिस पुत्र ने अपने पिता के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत धारण किया और राज पाठ का त्याग तक किया उस पुत्र को दिया हुआ वरदान आज शाप क्यों बन गया?जन्मो तक देख आये और थक कर स्वयं को कोसने लगे की ऐसी क्या भूल हुई के ये गति प्राप्त हुई है।
तभी जगतगुरु श्री कृष्णा का वहाँ आना होता है
प्रिय प्रभु भीष्म का मुख देख कर ही जान लेते है की उनके मन की क्या जिज्ञासा है ?
भीष्म कहते है की प्रभु ऐसी क्या गलती हुई की मुझे इस जन्म में ये गति प्राप्त हुई है ऐसा कोनसा पाप कर्म हुआ है जिसके कारण मुझे मेरे पोत्र के द्वारा ही बाणों से बिंध दिया गया गया ?
तब श्री कृष्णा ने कहा की आप अपने पूर्व जन्मो को देखने में  सक्षम है आप खुद ही देख लीजिये।
भीष्म ने कहा की मैंने अपने पिछले 100 जन्मो को देख लिया है परंतु कोई ऐसा पाप दिखाई नहीं दिया जिस कारण ये दशा प्राप्त हो।
कृष्णा जी  ने एक जनम और देखने का आग्रह किया और भीष्म ने देखा की पूर्व जन्म में वह एक प्रजाप्रिय राजा थे और उनका रथ राज्य के भर्मण के लिए जा रहा था तभी एक सैनिक आकर यह बताता है की राह में एक सर्प घायल अवस्था में पड़ा है और यदि हम आगे बढे तो उसकी मृत्यु का पाप हमें लगेगा।
राजा ने सर्प को उठा कर निकट की झाड़ियो में फेकने का आदेश दिया जिस कारन सर्प निकट की झाड़ियो में काँटों के ऊपर गिर गया और काँटों से बींधने से उसके प्राण पखेरू उड़द गए।
ये देख भीष्म के नेत्र खुलते हैं और एक प्रश्न प्रभु की और कहते है कि वो पाप तो अनभिज्ञता वश हुआ है उसका ऐसा परिणाम क्या उचित है?
प्रभु ने कहा कि पाप कितना ही छोटा क्यों न हो उसका परिणाम किसी न किसी जन्म में भुगतना पड़ता है तुम्हारे पुण्यकर्मों ने उन दंड को 100 जन्मो तक दूर रखा परंतु अंततः उसका परिणाम भुगतना ही पड़ा।
अपने कर्मो से कही नहीं भागा जा सकता है यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसके कर्म उसे और अधिक तीव्र गति से उसके पीछे आते हैं।
परमपिता ब्रह्माजी ने सभी मनुष्यो के आगे आने वाले जन्मो का जीवन उनके पिछले जन्मो के आधार पर रखा है यदि आप इस जन्म में दिव्य कर्म करेंगे तो अगले जन्म में आपका जीवन भी दिव्य होगा।

अनन्ता वे वेदा - वेद अनंत है


वेदों के विषय में आज के समय पर सभी का ज्ञान अधूरा सामान है और भारत में ये ज्ञान लगभग विलुप्त होने की राह पर है जिन वेदों ने पवन यान जलपोत और ब्रम्हास्त्र जैसी महान शक्तियों का उद्गम किया आज वही स्वयं विलुप्ति की कगार पर खड़े है।
एक अंग्रेज ने अपनी दैनिक पुस्तिका में लिखा था की राईट बंधुओ को हवाई जहाज बनाने की विधि वेदों से प्राप्त हुई थी और स्वयं भारतीय वैज्ञानिक डॉक्टर कलाम का कहना था की वेदों की बाते किसी पहेली की तरह लिखी गई है जिस से उन्हें कोई आसानी से न समझ सके।
आज पूरे विश्व के लिए " वेद " एक आश्चर्य की बड़ी पहेली बने हुए है।। वे क्या है, कितने है, उसकी रचना और संग्लन किस प्रकार किया, उनका विषय क्या है, वेदों का नाम लेते ही ऐसे प्रश्न तो सामने आते ही हैं।। जैसे ईश्वर की ही एक अबूझ पहेली हो वेद ।।
आखिर वैद है क्या??
"इस विराट विश्व की समूची सर्वांगीण यंत्रणा का ज्ञान भंडार ही वेद है "। अनन्ता वे वेदा : ऐसा वचन है ।।
इस विराट विश्व के कर्ता धर्ता, और निर्माता जो ईश्वर अर्थात  देव है , उन्ही के द्वारा यह वैद नामक ज्ञान भंडार मानव को प्राप्त हुआ है ।
कुछ लोग यह सोचते है, इस आद्यत्मिक किताब को इतिहास में क्यों स्थान दिया गया, तो ज़रा तो एक बात पर विचार करे, अनन्त कोटि ब्रह्मांड वाला यह असीम विश्व क्या अपने आप में एक चमत्कार नहीं है ? अंतरिक्ष में निराधार गोल घूमने वाली पृथ्वी को हम स्थिर और समतल समझकर जीवन बिताते है, क्या यह चमत्कार नहीं ?? जब ऐसे चमत्कारी विश्व का इतिहास ही हम लिखते है, तो सबसे पहले वेदों के अलावा और चर्चा किसी की, की भी कैसे जा सकती है ?
मगर सिर्फ इतना कहने से काम चलेगा??? नहीं, हमें और तर्क देने होंगे ।।
देव और वेद
देव और वद इन दो शब्दों पर कुछ समय के लिए धयान केंद्रित कीजिये, दोनों ही एक दूसरे के पूरक है, दीव यानि प्रकाशमान, देव वे होते है, जो स्वम् प्रकाशमान या ऊर्जा की भांति स्वम् चेतना के पुंज होते हैम देवदत्त ज्ञान भंडार - यानि वेद । अतः जो भी ज्ञानतेज जो देवो में है, उन्हें लिखित रूप से वेदों में उतारा गया है ।।
वेद हर किसी को क्यू समझ में नहीं आते ?
हाँ , यक़ीनन यह ज्ञान का भंडार है, और यह समझ में भी नहीं आते , यह सुनकर आपको थोड़ा आश्चर्य हुआ होगा, किन्तु इसमें आश्चर्य जैसी तो कोई बात नहीं, यंत्र की रचना और कार्यतंत्र को प्रस्तुत करने वाली पुस्तिका सबके समझ के बाहर होना स्वाभाविक सी बात है।। आप टीवी अपने घर लाते है, तो क्या उसे खोल के देखते है? कि वो कैसे बना, क्या क्या तकनीक इस्तमाल हुई आपको मतलब सिर्फ टीवी देखने से होता है, इसी तरह हम मान बैठे है, की वेद ज्ञान का भंडार है, बिना पढ़े ही ।। जब स्वमं आप ईश्वर का तेज पाने निकालते हो तो उसके लिए आपको सब कुछ समर्पण तो करना ही होगा, ईश्वर से मिलन के लिए नहीं, उनके जैसी श्रेष्ठता हासिल करने के लिए ।। आर्यो को ईश्वर ने अपना पुत्र कहा है, और कौन पिता नहीं चाहेगा, की उनके पुत्र उनसे आगे ना निकले इसी लिए वेदों की रचना भी हुई।

अगर वेदों का ही ज्ञान चाहिए तो, सबसे बड़ी शर्त यह है, एक ज्ञानपिसाचु व्यक्ति योगी भी होना चाहिए, जो कुछ समय के लिए ही क्यू ना हो, इस जड़ जगत की सारी चिंताओ और व्यवधानों को भूलकर वैदिक रचनाओं के चिंतन में तल्लीन और समाधिस्त हो सके ।।

आइये ।।। वेदों की और फिर से लौटे

वेद को पढ़ने का आदेश स्वमं परमपिता परमेश्वर का है ।।

महाभारत तक तो सारा विश्व ही वेदों का पाठ करता था । युद्ध के बाद इसके घटते स्वर सिर्फ भारत तक रह गए, भारत की भूमि का कुछ भाग मुसलमान खा जाने के बाद यह लघुभारत रह गया है।। और यहाँ लघुभारत में में भी वेदों की पठन की व्यवस्था नहीं की गयी । जबकि पीढ़ी दर पीढ़ी अपने कुटुंब को वेद पढ़ाने की परंपरा हमारे समाज में थी ।। वेदों से ज्ञान प्राप्त करने वालो का रहन सहन बहुत सादा था , आज भी हम हिन्दू वेद पठन को बड़ी सुद्धता से और निस्वार्थ भाव से इसका पठन करते है , और उसी परंपरा को चला रहे हैं ।।। क्या यह चमत्कार नहीं है ??

भारत में जब अंग्रेजो का प्रभुत्व था, तो यूरोपीय गोरे पादरियों ने वेदों का अनुवाद कर सारे अर्थो का अनर्थ कर दिया, वेदों का अनुवाद तो किसी भाषा में नहीं किया सकता, क्यू की एक एक संस्कृत विविध अर्थ अनुवाद करने पर वह लुप्त हो जाएंगे, और मुर्ख गोरो ने वेदों के अनुवाद को बच्चो का खेल समझ लिया । उन अधर्मियों की बातें आज भी सच्ची मानकर हमारा समाज वेदों से दूर हो रहा है ।। उन्ही की तरह हमारे आर्य भी खुद को दलित या अन्य किसी का अनुयायी बताकर खुद को राक्षसों की टोली में शामिल कर रहे है।।

Friday, 27 January 2017

दाह संस्कार क्यों आवश्यक है ?

हिन्दू पद्धत्ति के अनुसार मनुष्य के मरने के पश्चात उसके पार्थिव शरीरी को अग्नि के सुपुर्द कर उसे नाशवान किया जाता है कुछ जिज्ञासुओ का ये मनना है की ऐसा करना गलत है और ऐसा करने से कोई लाभ नहीं है। परंतु ऋषियों - मुनियो की इस भूमि को उनके कुतर्कों की कोई आवश्यता नहीं है पुरातन समय से हमारे पूर्वजो ने हमारी दिनचर्या में ऐसी आदतों को गढ़ा है जिसने आज हम अंधविश्वास कह कर टाल देते या कुतर्कों से उनका खंडन किया जाता है। समय जानो को इन बातो का ज्ञान न होने के कारण उन्हें अपने धर्म के मार्ग पर चलने में या तो कठिनाई होती है या फिर वो धर्म के विषय में चर्चा करने से घबराते है।
विषय है की अंतिम संस्कार दाह संस्कार ही क्यों है ?
जल में प्रावह कर या भूमि में दबा कर भी किया जा सकता है।
 तर्क यह है की यदि हम जल में शव को प्रवाहित करेंगे तो जल दूषित होगा तथा यदि हम भूमि में दफ़न करेंगे तो भूमि दूषित भी होगी और एक समय ऐसा आएगा की सभी जगह शवो का ढेर बना होगा इस करण शव् को जलना ही उचित है परंतु जलने का अर्थ मिटटी तेल या कोई और ज्वलनशील पदार्थ से जलने से नहीं है।
कई बंधू लोग अंतिम संस्कार रीती में गए होंगे उन्हें पता होगा की शव् को जलाते समय उसपर काफी प्रकार की सामग्रियों का डाल कर दाह क्रिया को संपन्न किया जाता है  सभी सामग्रियों का प्रयोग वातावरण को शुद्ध करने के लिए किया जाता है जिस से आस पास की वायु को नुक्सान ना हो वायु प्रदुषण ना हो।

हम सभी परमेश्वर को "भगवान्" के नाम से जानते है यदि इसका संधि विच्छेद किया जाये तो हमें एक शब्द भ+ग+व+आ+न  प्राप्त होगा ये वही पञ्च तत्त्व है जिनसे हमारे भौतिक शरीर का निर्माण हुआ है।
भ से भूमि,ग से गगन,व से वायु, आ से आकाश और न से नीर मरणोपरांत हमारे शरीरी को इन्ही पञ्च तत्वो में विलीन किया  जाता है।

अग्नि,वायु,आकाश तथा भूमि तो हमें दाह संस्कार से मिल जाती ही  तथा उस से जगत का कल्याण वायु की शुद्धि कर किया जाता है अंतिम चरण होता है अवशेषो को जल में विलीन करना जो राख और हड्डिया पानी में डाली जाती है  उन से पानी में कैल्शियम  कमी दूर होती है और राख पानी में मिलने से जिस भी खेती की भूमि में जाता है वह भूमि उपजाऊ होती है।
पानी में कैल्शियम की वृद्धि से मछलिया ज्यादा होती है और जलचर प्राणी वृद्धि करते है जिस से जल का शुद्धिकरण होता है मछलिया जल की गन्दगी को ग्रहण  जिस  मल का त्याग करती है उस से जल की वनस्पति को खाद प्राप्त होती है।
दाह के समय जिन जड़ी-बूटियों का प्रयोग किया जाता है उनसे बदलो में भारीपन होता है और वो बरसने के लिए त्तपर होते है आज के समय पर कृत्रिम वर्षा भी इसी ज्ञान को धयान में रख कर कराइ जाती है।





Thursday, 26 January 2017

विश्व नायक (नरेन्द्र मोदी अथवा डोनाल्ड ट्रम्प)

आज के समय पर विश्व पटल पर 2 ही नामो की केवल चर्चा है और वो दोनों राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले शक्तिशाली व्यक्ति है। भारत को एक दब्बू देश से एक सिंह की दहाड़ बनाने वाले देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का अत्यंत ही महत्वपूर्ण योगदान है यदि भारत आज के समय पर विश्वगुरु बनाने की हुंकार भारत है तो उसका श्रेय केवल मोदी जी को जाना है। अमेरिका से सम्बन्ध पहले से अधिक अच्छे बनाने ओ बराक ओबामा को अपने छोटे भाई की तरह स्नेह से गले लगाने वाले प्रधान मंत्री भारत के ही है उनके अन्यत्र कोई भी ऐसा नहीं है जिसने अमेरिका के राष्ट्रपति को निकट से स्पर्श करने का भी प्रयास किया हो। 
आर्थिक मंदी  के समय भारत में आने का बराक ओबामा का निर्णय अपने नागिको के लिए सहूलियत प्राप्त करना था की उनके व्यवसाय को कोई हानि नहीं होगी और न ही उन्हें नोकरियो से  निकाला जायेगा परंतु अभी उनके भारत आने का अर्थ आर्थिक नहीं मानसिक था। मित्रता के लिए ओबामा ने  1 वर्ष में 2 बार भारत की राजनितिक यात्रा की और मोदी जी के साथ बैठकर चाय की चुस्कियो से साथ ठहाके भी लागए। 
परन्तु अब समय बदल चुका है अब समय ट्रम्प का है जो दिन प्रतिदिन और भी शक्तिशाली होता जा रहा है अमेरिका ने अपनी जो साख खो दी थी एक गरम रवैये वाले देश से नरम रवैये वाला देश बन गया था वह अब वापस आ रही है ट्रम्प का सीधे शब्दो में मुस्लिम समुदाय को चुनोती देना और गैर अमेरिकी नागरिको को धमकाना साफ़ कर देता है की ये एक कठोर फैसले लेने वाला राष्ट्रपति है इनसे कोई अपनी गलतियों को क्षमा के भूल न ही करे तो ठीक होगा। 
जिस प्रकार से ट्रम्प ने अपने भाषणों में भारत और हिंदुत्व की विवेचना की थी उस से देख कर तो यही प्रतीत होता है की भारत की तरफ अमेरिका का रवैया अभी भी मित्रता वाला रहेगा और पकिस्तान को अभी अपने कान खीचने में भी भलाई है अन्यथा जिस प्रकार रूस प्रत्येक दिन आतंकियों का सफाया कर रहा है उसी अकार से कही एक दिन ऐसा ना आ जाये की पकिस्तान को अमरीका अपने कब्जे में कर वहां पर एशिया महाद्वीप कर नजर रखने वाला क्षेत्र बना दे ऐसी पेशकश वो भारत को भी दे चुका है क्योके उसे ज्ञात है की चीन एक बड़ा प्रतिद्वंदी है हथियारों में अमेरिका का और उसपर कब्ज़ा करना इतना सरल नहीं है न ही क्षेत्रफल से न ही बल से। 

Wednesday, 25 January 2017

गणतंत्र दिवस

भारतीय  संविधान २६ जनवरी १९५० को भारत में लागु  हुआ। 
 संविधान सभा ने संविधान को २ वर्ष ११ माह १८ दिन अर्थात सितंबर १९५० को ही संविधान बनकर तैयार हो गया था परंतु उसे लागु करने में इतना समय क्यों लगा ?
इसका उत्तर हमारे इतिहास में छिपा है। स्वतंत्रता संग्राम के समय पर भारतीय स्वतंत्रता सेनानियो ने २६ जनवरी १९४७ के दिन को स्वतंत्र भारत का दिन घोषित किया था परंतु इस दिन भारत को स्वतंत्रता करा पाना संभव ना हो सका और भारत को अंग्रेज मुक्त १५ अगस्त १९४७ को कहा गया। ऐसी स्तिथि में स्वतंत्रता दिवस को २६ जनवरी तक लेकर जाना संभव नहीं था इसी कारण से भारत के संविधान को इस दिन लागु किया गया। 
संविधन लागु करने का सीधा तात्पर्य ये था की जो क्रांतिकारियों द्वारा दिन का महत्त्व रखा गया था उस दिन का महत्त्व आगे भी बना रहे। 
इस दिन राजपथ पर शौर्य प्रदर्शन किया  जाता है जो यह दर्शाता है की अब हम अपनी शक्ति को सही रूप से प्रदर्शित करने में सार्थक है केवल शक्ति होना ही प्रयाप्त  का सही प्रयोग भी  आवश्यक है। 
 भारतीय सेना किसी भी सेना से यदि युद्ध  करती है तो युद्ध के उपरांत विपरीत सेना के शवो को आदरपूर्वक विपरीत देश को सोंपा जाता है ये युद्ध की नीति है की किसी भी सैनिक के पार्थिव शरीर का अपमान न हो। 
"हिटलर में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय कहा था की यदि जर्मनी के पास भारतीय सेना होती हो में इस युद्ध का निर्णय जर्मनी के पक्ष में होता"
कारगिल युद्ध के समय भारतीय सेना की "राजपूत रेजिमेंट"का शौर्य देखते ही बनता था जब अपने से अत्यधिक मजबूत स्थिति में बैठी पाकिस्तनि सेना को उन्होंने पहाड़ी के ऊपर जाकर भी मार था और भागते हुए पाकिस्तानी सैनिको को ये कहकर नहीं मारा था की हम भगोड़ो से युद्ध नहीं करते। 
चीन युद्ध के समय जब भारतीय सेना के पास हथियार नहीं पहुच पाए थे उस समय पर सेना ने अत्यंत शोर्य दिखाते हुए  आगे बढ़ कर अपनी बंदूको को तोड़ कर फेक दिया और बन्दूक की संगीनों को निकाल कर २०-२० चीनियों को ईश्वर के निकट भेज वीरगति को प्राप्त किया उस समय चीन अमेरिका और रूस के दर से कम भारतीय सेना की वीरता से अधिक थरथरा उठा था और अपने कदमो को भारत में आने से रोकने पर विवश हो गया था। 

गणतंत्र दिवस : 26 JANUARY



भारत देश में गणतंत्र दिवस को हिंदी में पूर्त्य कुछ ही लोग जानते है इसका  वास्तविक नाम या तो 26 जनवरी या REPUBLIC DAY के नाम से जाना जाता है इसमें हमारा कोई दोष भी नहीं है क्योकि जब विद्यालयों में आज के समय पर पाश्चात्य सभ्यता के अनुरूप पढाई लिखाई और अन्य कार्य किये जा रहे है तो संभावित है की हम हिंदी को पूर्णतया या तो त्याग दे या अंग्रेजी को पूर्णतया अपना लें।
भारत में अंग्रेजी का प्रचलन प्रचलन 1857 की क्रांति के पश्चात अधिक हुआ उसके पीछे का कारण ये रहा की अंग्रेजो ने जब पहली क्रांति का दमन किया तब उन्होंने क्रांति होने के कारण का गहन किया और उस अध्यन्न का नतीजा  निकल  आया की जब इस क्रांति को करने के पीछे महीनो का कार्य था लेखको ने लेखों द्वारा ही भारत के लोगो में नई जान फूकि थी और अपनी कविताओ और भाषणों के द्वारा छोटे छोटे राजाओ पर व्यंग , कटाक्ष और मातृभूमि की दशा को बता कर उनके मन में क्रांति के भाव उत्पन्न कर दिए थे।
एक प्रकार से भारत में रहने वाले हर व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार से क्रांति से भाषा के द्वारा जोड़ा जा रहा था तब अंग्रेजो ने अपनी रणनीति बदली और भारत से हिंदी को विलुप्त करने का अपना प्रयास आरम्भ कर दिया उस समय के एक अंग्रेज ने अपनी किताब में लिखा था की भारत को जब तक नहीं जोड़ा जा सकता जब तक की उसकी भाषा को नहीं जोड़ा जा सकता।
अपनी पहली रणनीति "फुट डालो राज करो" में सजग सफलता के बात अंग्रेजो ने दूसरी रणनीति पर काम करना आरम्भ किया और वो अपनी रणनीति में सफल भी रहे।
आज के भारत में अगर हम किसी भी प्रदेश में निकल जाये तो वहां पर पूर्णतय हिंदी बोलने और सझने वाले लोग नदारद है.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली जैसे क्षेत्र में अंग्रेजी में बात करना एक आवश्यकता बन गई है और जैस हवा और पानी कोई भी व्यक्ति हिंदी में बात करना आज अपमान क्यों समझ रहा है ?
जापान,चीन,रूस,जर्मनी और फ्रांस जैसे विकसित देशो में अंग्रेजी की कोई भी पुस्तक पढ़ाना या फिर अंग्रेजी की तरफ कोई भी लुभावन होना बिलकुल नहीं है।
 जापान और चीन जैसे देशो में बच्चो को अंग्रेजी पढना गैर क़ानूनी है और ये देश अपनी संस्कृति के प्रति गौरवान्वित भी है। इन्हें गर्व है स्वयं के जापानी होने पर  और चीनी होने पर।
जापान के लेखक ने भाषा के विषय में कहा है की "यदि आप अपने देश को गौरवान्वित करना चाहते है तो अपने बच्चो को मातृभाषा की शिक्षा दीजिये अन्यथा वो कभी भी राष्ट्रभक्त नहीं बन पाएंगे। देश की आत्मा मातृभाषा में है उसका प्रयोग करें "

Tuesday, 24 January 2017

नरेंद्र तथा नरेंद्र मोदी


जीवन में कभी ऐसे क्षण आते है जो हमें सोचने पर विवश कर देते है की अगर ऐसा ऐसा किया होता तो आज में कहा पर होता।
ऐसे ही कुछ वृतांत कहे जाते है हमारे राष्ट्र नायक नरेंद्र मोदी के विषय में जो की आज के समय पर एक अति विलक्षण प्रतिभा के ज्ञाता है।
वाक्पटुता कुछ लोगो ने तो ऐसा शब्द भी नहीं सुना होगा लेकिन हिंदी भाषा के अंदर ऐसे शब्दो का भण्डार है। पुरातन काल से ही इस विधि का प्रयोग राजनायकों द्वारा किया जाता रहा है जो की हमारे पूर्व प्रधान मंत्री जी को नहीं आता था उन्होंने तो साक्षात् ये भी कह दिया था की "मेननू इंदी नी ओंदी सी" एक ऐसा अर्थशास्त्री जिसने अपने ज्ञान से भारत को मजबूती दी उसी ने राष्ट्र को एक गूंगापन भी प्रदान किया।
यहाँ नरेंद्र का अर्थ एक साधारण बालक से है जो की बाद में गुजरात का मुख्यमंत्री बन कर नरेंद्र मोदी बना उसके बाद भारत का प्रधान मंत्री बन वो मोदी बना। इस काल में उन पर काफी आरोपो का भी रोपण हुआ पर अभी तक की समाचार सूचनो के अनुसार तक तो उनके प्राणों की भी कोई संभावनाएं नहीं है
विरोधियो ने पास के शत्रु देशो तक से सहायता की गुहार कर ली है।मोसाद जैसे संगठनों ने भी भारत को इस विषय में सचेत किया है।अभी तो केवल 2019 की प्रतीक्षा है।
किसी भी कला में महारथ प्राप्त करने को पटुता कहा जाता है कुछ लोगो में ऐसा प्रतिभा जन्म से होती है और कुछ लोगो में ये प्रतिभा अभ्यास से आती है नरेंद्र मोदी के विषय में ये दोनों ही संभावित है। पहले वो संघ के प्रचारक रह चुके है तो संभावित है कई स्थानों पर उन्होंने अपनी सेवाएं भी दी होंगी और उन्ही से उन्हें कुछ अभ्यास भी आया होगा और उसके बाद वो मुख्यमंत्री भी रहे है जिसके लिए वो अत्यधिक लोगो से मिले-जुले होंगे ये अभ्यास का ही एक रूप है। यद्यपि हम किसी व्यक्ति से पहली बार मिलें परंतु उसी प्रकार के व्यक्ति से अगर हम पहले भी मिले है तो हम उस से बात करने में झिझक कम होगी ऐसा सामान्यतः INTERVIEW के समय पर देखा भी जाता है।
किसी ही देश का प्रधान सेनापति यदि वाक्पटुता में पारंगत नहीं होगा तो वो समस्याओ को सुलझा नहीं पायेगा उसके विपरीत उसके गलत शब्दो का चयन उसे समस्याओ में अधिक घेर सकता है प्रचीन समय से ही ऐसे लोगो को राजनयक बनाने की परंपरा रही है जैसे की बीरबल,मानसिंह,उदल और बाजिराओ बल्लाड।
ये सभी अपने शब्दो को संयम से प्रयोग करने में महारथी थे।
जीवन के अनुभव - छोटी उम्र में चाय बेचना माता को लोगो के घरो में बर्तन मांजते देखना और घर की गरीबी से बुरी हालात ये सभी चीजे किसी कमजोर ह्रदय वाले व्यक्त को तोड़ सकती है लेकिन जिनका ह्रदय फौलादी होता है वो इन्हें अपने राह की अड़चन की जगह साहस का औजार सझते है।
हिटलर ने एक समय दिवार को पोतते समय कहा था एक दिन में इस देश का राजा बनूँगा और उसने वो अपनी दृढ इच्छा शक्ति से कर दिखाया।
ऐसा ही मोदी जी के साथ भी था उन्हने कहने से अधिक करने पर भरोसा किया और आज के समय कर नोटबंदी का फैसला बिना किसी पूर्व न्योजित कार्यक्रम के कर दिखाना उनकी इच्छा शक्ति का ही प्रमाण है।

Saturday, 21 January 2017

उद्धव गीता



उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने *अवतार काल* को पूर्ण कर *गौलोक* जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा-
"प्रिय उद्धव मेरे इस 'अवतार काल' में अनेक लोगों ने मुझसे वरदान प्राप्त किए, किन्तु तुमने कभी कुछ नहीं माँगा! अब कुछ माँगो, मैं तुम्हें देना चाहता हूँ।
तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी।
उद्धव ने इसके बाद भी स्वयं के लिए कुछ नहीं माँगा। वे तो केवल उन शंकाओं का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थीं।
उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-
"भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नहीं समझ पाया!
आपके 'उपदेश' अलग रहे, जबकि 'व्यक्तिगत जीवन' कुछ अलग तरह का दिखता रहा!
क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?"
श्री कृष्ण बोले-
“उद्धव मैंने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह *"भगवद्गीता"* थी।
आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तुम्हें उत्तर दूँगा, वह *"उद्धव-गीता"* के रूप में जानी जाएगी।
इसी कारण मैंने तुम्हें यह अवसर दिया है।
तुम बेझिझक पूछो।
उद्धव ने पूछना शुरू किया-
"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?"
कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, मदद करे।"
उद्धव-
"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे। आजाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।
कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा!
आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक सकते थे!
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया, और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे!
अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे!
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!
लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?
उसे एक आदमी घसीटकर हॉल में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है!
एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?
बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा?
क्या यही धर्म है?"
इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!
उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।
भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।
यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।"
उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।
जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह-
उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!
क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर-
*'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम'*-
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।
जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"
उद्धव बोले-
"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई!
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"
कृष्ण मुस्कुराए-
"उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।
मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।
यही ईश्वर का धर्म है।"
"वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?"
उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!
तब कृष्ण बोले-
"उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो! धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?"
भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले-
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। 'प्रार्थना' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी 'पर-भावना' है। मग़र जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि 'ईश्वर' के बिना पत्ता भी नहीं हिलता! तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।
गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।
सम्पूर्ण श्रीमद् भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास हुआ, वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!
यह अनुभूति थी, शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!
तत-त्वम-असि!
अर्थात...
वह तुम ही हो।।

Tuesday, 10 January 2017

नरेंद्र मोदी : उत्तर प्रेदेश भाजपा


अभी उत्तर प्रदेश में राज्यसभा के चुनावो की जंग जारी है और इस दौड़ में 3 पार्टिया सबसे आगे हैं।
1.भाजपा
2.सपा
3.बसपा
तीनो के वोटो की संख्या इनके क्रमानुसार ही है यव तीनो ही दल उत्तर प्रदेश का भविष्य निर्धारित करेंगे इनके अन्यत्र कोई और दल उत्तर प्रदेश में नहीं आ सकता है कोंग्रेस का दमन तो लोकसभा के समय से ही हो चूका था अब तो बस वो एक निशान बन कर रह गई है कई क्षेत्रो में तो इन्हें अपनी जमानत भी बचानी भारी पड़ सकती है।
जिस प्रकार से आम आदमी पार्टी के कुमार विशवास ने अमेठी से जितने का दम भरा था और फिर वो अंत में जाकर अपनी जमानत भी न बचा पाये थे वाही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ होने वाला है।
भाजपा का जितना आवश्यक है क्योकि भाजपा के नेताओ की अब काम करने की इच्छा है और उत्तर प्रदेश ऐसा प्रदेश है जहा पर यदि कोई काम करता है तो उसे उसके अनुसार वोट भी मिलते है।
जैसा की पिछले चुमावो में देखा गया था की मायावती और अखलेश यादव ने जो भी कार्य किये थे सब अपनी बिरादरी के लिए किये थे।उत्तर प्रदेश में अखलेश यादव ने कोई ख़ास विकास तो किया नहीं क्योके वो भी मनमोहन सिंह की तरह ही कठपुतली है अपने पिताजी के और ये केवल दिखावे के मुख्यमंत्री है इनके सभी निर्णय दबाव में होते है और इन निर्णयों से जनता को अत्यधिक नुक्सान झेलना पड़ता है।
पिछले दिनों जब दुर्गा नागशक्ति जैसी IPS अफसर ने अवैध मस्जिद निर्माण पर रोक लगाई तो अखलेश यादव ने उनका हो तबादला करा दिया और उसकी जगह पर एक आलीशान मस्जिद का निर्माण सरकारी पैसे से करा दिया जिस प्रकार मायावती ने सरकारी धन का प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए किया उसी प्रकार से अखलेश यादव अपनी वोटो में वृद्धि के लिए मुस्लिमो को लुभावन देने के लिए सरसरकारी खजाने का दुरूपयोग करते दिखाई दे रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में जब बसपा की सरकार थी तब भी स्वर्णो की वही हालत थी और जब सपा की सरकार आई तब स्वर्णो भी स्वर्णो की वही हालात है परंतु बसपा के आने पर दलितों को स्वर्ण जैसा अनुभव कर ही दिया था परंतु चार दिन की चांदनी कब तक टिक पाती?
सपा ने आते ही सबसे पहला काम दलितों को सभी उच्च सरकारी पदों से हटा कर उन्हें कही दूर भेज दिया और उन स्थानों पर यादवो की भर्ती आरम्भ कर दी और 5 वर्षो में सभी ऊँचे पदों पर यादवो का बोल बाला हो गया है ।
आज के समय पर उत्तर प्रदेश सरकारी विभाग जो यादवो का गढ़ माना जाता है में भाजपा का जितना चिड़िया की आँख में निशाना लगाने जैसा है।भले भी भाजपा नरेंद्र मोदी जी को अपना मुख्या चहरा बना कर चुनाव लड़ रही है परंतु इसमें भी जोखिम तो है ही ।भाजपा के लिए इस स्थिति में चुनाव के नतीजे अपने पक्ष में निकलने का एकमात्र साधन नरेंद्र मोदी जी ही है।
अगर लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखा जाये तो चुनाव के नतीजे भाजपा के पक्ष में अधिक है परंतु समय का फेरा बिहार की याद भी दिलाता है।