Saturday, 15 April 2017

अर्जुन महादेव युद्ध

पांडवो को १३ वर्ष का वनवास तथा १ वर्ष का अज्ञातवास हुआ इसके बाद भी मामा शकुनि ने अपनी योजना यह बनाई की अज्ञात वास में पांडवो को अपने गुप्तचर द्वारा ढूंढ कर दोबारा से वनवास भेजने का।
बारहवे वर्ष के अंत में श्री कृष्ण  पाडवो से गुप्त रूप से मिले और उन्हें आगे होने वाले युद्ध की सूचना दी। कृष्ण जानते थे की युद्ध होना निश्चित है और उसके लिए कृष्ण ने उन्हें अपनी योजना तैयार रखने की भी सलाह दी अपने सभी अस्त्रो को साधने की सलाह दी और अन्य अस्त्रो के संधान और प्रयोग को जानने की भी सलाह दी। 
इस पर अर्जुन ने पूछ की इन सभी अस्त्रो को कैसे प्राप्त किया जायेगा ?
श्री कृष्ण ने बताया की सभी अस्त्रो के संरक्षक देवराज इंद्र है तुम उन्ही के पास जाओ वही तुम्हारी सहायता करेंगे। अर्जुन ने हिमालय की कंदराओ में जाकर देवराज इंद्र का आव्हान किया और उनसे सभी अस्त्रको की प्राप्ति की अंत में इंद्र ने कहा की "हे वीर धनुर्धर अर्जुन तुमने सभी अस्त्रको का ज्ञान प्राप्त कर लिया है परंतु जब तक तुम महादेव को प्रसन्न नहीं कर लोगे तब तक तुम इन अस्त्रो को भली भांति प्रयोग नहीं कर पाओगे केवल महादेव के आशीर्वाद से ही तुम इन अस्त्रो की अशी शक्ति को प्राप्त कर पाओगे "
अर्जुन ने देवराज से अनुमति लेकर वन में जाकर महादेव को प्रसन्न करने के लिए तप आरम्भ किया। तभी वह से निकल रहे एक राक्षस की दृस्टि अर्जुन पर पड़ी और अर्जुन को अपना सायंकाल का भोजन मान उस राक्षस ने एक जंगली सूअर का रूप धारणकर उस पर हमला करने के लिए दौड़ लगाई। अर्जुन अपने तप के कारण से अत्यधिक संवेदनशील हो चुके थे और और उन्होंने जंगली सूअर के आने की अनुभूति पहले ही हो गई और पास ही रखे अपने गांडीव धनुष को उठा कर उन्होंने एक ही बाण से उन्होंने सूअर का संहार कर दिया और उसकी स्थिति देखने को जब वो उठ कर उसके पास गए तो सूअर को देख कर आश्चर्य चकित हो गए। 
उन्होंने देखा की सूअर को 1 नहीं 2 बाण लगे है। ऐसा देखा ही था की तभी अर्जुन के कानो में ध्वनि सुनाई पड़ी की दूर हट जाओ यह मेरा शिकार है इसे मैंने मार है। 
ऐसा सुन अर्जुन मुस्कुराये और व्यक्ति की तरफ देख कर बोले  "हे भील राज आप होने बड़े धनुराधार परंतु में अर्जुन हूँ गुरु द्रोण का शिष्य तथा श्री कृष्ण का सखा मरे अन्यत्र कोई और धनुर्धर इस पृथ्वी पर मुझसे तेज बाण नहीं चला सकता आपसे देखने में कोई गलती हुई है कृपया आप इस शिकार को अपना न कहें " 
इसपर भील ने कहा की आप कोण अर्जुन है मैंने तो कभी किसी अर्जुन या द्रोण का नाम नहीं सुना कैसे धनुर्धर है आप जिसे कोई नहीं जनता। और यदि आप इस बात पर घमंड करते हो की आप सबसे बड़े दनुर्धर हो तो में इस बात को चुनोति देता हूँ। 
इसपर अर्जुन ने कहा की आप या तो शिकार को अपना न कहे या फिर मेरे गांडीव धनुष से युद्ध कर निर्णय कर लें। 
इसपर भी भील ने कहा की आप कैसे तपस्वी है जो शस्त्रो को समीप रख कर तप कर रहे है ?
अर्जुन ने इसका बड़ा मनमोहक उत्तर दिया और कहा की "जब मेरे अराध्य श्री महादेव त्रिशूल साथ में रख कर तपस्या   कर सकते है तो में क्यों नहीं " और इतना बोल कर अर्जुन ने अपना धनुष जैसे ही उतने की चेस्टा की भील ने उन्हें सावधान होकर वार से बचने की चेतावनी दी। 
अर्जुन ने  जैसे ही एक पग धनुष की ओर बढ़ाया तब तक एक ही क्षण में 16 बाणों ने उनका रास्ता रोक दिया। 
ऐसा देख अर्जुन ठिठक गए और सोचने लगे की कोन  इतना महान धनुर्धर है जिसने मेरे पलटने से पहले ही बाणों की वर्षा से मेरा रास्ता रोक दिया अर्जुन एक ऐसा योद्धा जिसके पास गांडीव धनुष है जिसकी प्रत्यंचा ही 108 बाणों से आरम्भ होती है और जो एक ही पल में लाखो बाणों का अनुसन्धान कर बाणों की वर्षा कर सकता है उसे एक भील ने धनुष उठाने तक भी नहीं दिया " 
ऐसा सोच कर अर्जुन ने हाथ जोड़ कर कहा की हे भीलराज मेरी ऐसा स्थिति तो केवल गुरु द्रोण, पितामह भीष्म देवराज इंद्र और महादेव के अन्यत्र कोई नहीं कर सकता। गुरु द्रोण तथा पितामह भीष्म आप है नहीं उन्हें में भली भाती जनता हूँ। आप देवराज इंद्र भी नहीं आप केवल महादेव है। 
ऐसा सुन भील ने कहा की में इंद्र क्यों नहीं हो सकता ?
तो अर्जुन ने कहा की भगवान् में उपासना तो आपकी कर रहा था तो इंद्र कैसे आ सकते है। 
ऐसा सुन महादेव अपने असली रूप में आये और घमंड न करने की आज्ञा देकर तथा दिव्या अस्त्रो का आशीर्वाद देकर वापस अंतर्धयान हो गए। 

Saturday, 1 April 2017

रावण की कैद

सभी सनातनियो को इस विषय में ज्ञात है की रावण एक महान योद्धा था जो बाली के अन्यत्र किसी से भी पराजित नहीं हुआ। परंतु ऐसा नहीं है रावण बाली के अन्यत्र भी एक प्रतापी राजा का कैदी रह चुका है।
हैहय वंश में उत्पन्न महाराज कार्तवीर्य अर्जुन बड़े ही शूरवीर तथा प्रतापी राजा थे वे अत्यंत ही साधक भी थे उन्होंने अपनी साधन के बल पर ही अपने गुरु दत्तोत्रय को प्रसन्न कर एक हजार भुजाओ का वरदान प्राप्त किया था जिसके कारन उनका नाम सहस्त्रबाहु अर्जुन भी था।
एक समय जब सहस्त्रबाहु अपने रानियों के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था तब कौतुक में उसने अपनी भुजाओ को फैला कर नदी का जल रोक लिया। 
उस समय रावण भगवान् भोलेनाथ की उपासना कर रहा था और जल का एका-एक समाप्त हो जाना उनके लिये आश्चर्य का कारन बन उठा तथा क्रोध का भी कारन बना। 
भगवान् को प्रसन्न करने के जलभिषेक के लिए रावण को जल की अत्यंत आवश्यकता थी तब जल का अनुपलब्ध होना क्रोध का कारण था। 
इस विषय का संज्ञान लेने जब रावण नदी में उतरा वे आगे की और बढ़ तो देखा की सहस्त्रबाहु अपनी रानियों के साथ जल क्रीड़ा कर रहा है और जल को रोक कर अपने बल का प्रदर्शन कर रहा है। यह सब देख रावण आग बबुला हो उठा और सीधे युद्ध करने लगा। 
परंतु सहत्रबाहु के आगे वह  टिक न सका और कुछ ही देर में सहस्त्रबाहु ने रावण को बंदी बना बेड़ियो के जकड कर कारागार  में डलवा दिया।
परंतु कुछ ही समय बाद पुलत्स्य मुनि ने अज्ञानी साधक समझ कर रावण को कारागार से मुक्त करा दिया और रावण फिर से साधना में बैठ कर अपनी शक्तियों को बढ़ने लगा। 

Saturday, 25 March 2017

युद्ध कर्ण तथा अर्जुन

महाभारत के भीषण युद्ध में एक समय जब कर्ण तथा अर्जुन एक दूसरे के सम्मुख शस्त्रो को लेकर खड़े थे उस समय श्री कृष्ण को अर्जुन केवल यह कहते हुए सुन रहे थे की वाह सूर्यपुत्र तुम्हारे शस्त्रो के परिचय के सम्मुख तो यहाँ सभी महारथी तुच्छ है ऐसा सुनकर अर्जुन अत्यंत ही कुपित होकर श्री कृष्ण से पूछते है की जब में कर्ण पर बाण चलता हूँ उस समय उसका रथ २०० कदम पीछे चला जाता है तथा जब वह अपने शस्त्रो से वार करता है उस समय मेरा रथ कुछ पग ही पीछे खिसकता है इसमें कर्ण का पराक्रम तो कम ही हुआ फिर भी आप उसकी प्रशंशा में अत्यंत ही प्रसन्न होते दिख रहे है ऐसा क्यों ?
श्री कृष्ण ने कहा की अर्जुन जब तुम कर्ण कर वार करते हो उस समय कर्ण अकेला ही तुमसे युद्ध कर रहा होता है वो भी बिना किस दैवीय शक्ति के और जब तुम कर्ण पर वार करते हो उस समय तुम्हरे रथ पर ध्वज बन कर स्वयं महावीर हनुमान बैठे होते है जो की अपनी शक्तियों से तुम्हारे रथ को पीछे हटने से रोकते है और तुम्हारे रथ के पहियो में शेषनाग लिपटे हुए है जो की रथ को पीछे की जगह आगे की ओर धकेलते है तुम्हारा रथ स्वयं श्री हरी चला रहे है वो सबसे बड़े सारथी है और इन सभी शक्तियों के बाद भी यदि तुम्हारा रथ पीछे खिसकता है तो इसमें कर्ण का पराक्रम ही है और तुम्हरी शक्तियों पर संदेह।तुम सभी शक्तियों और अस्त्रो के ज्ञाता हो परंतु तुम कर्ण के सामान तेजस्वी नहीं हो तुम्हरे पास दैवीय गुणों वाला धनुष गांडीव है तुम्हारे अस्त्र भवन शिव के द्वारा रक्षित है अस्त्रो से केवल देह को कटा जा सकता है परंतु कर्ण  की देह को काटने के बाद भी उसके पराक्रम को काट पाना असंभव है कर्ण स्वयं में एक सेना है।कर्ण का पराक्रम उसके कवच और कुंडल में नहीं था उसका पराक्रम उसके संकल्प और परिश्रम में है।
यदि तुम कर्ण मार भी देते हो तो इसमें तुम्हारा कोई पराक्रम नहीं है। कर्ण की मृत्यु निश्चित है परंतु तुम उस मृत्यु के केवल एक कारण हो तुम अकेले कर्ण को कभी मार ही नहीं सकते। यदि तुम अकेले ऐसा करने की सोचते भी हो तो अगले ही पल तुम मृत्यु से आलंगित हो चुके होंगे।कर्ण का प्रताप देखे बनता है कर्ण से तुम्हारी रक्षा के लिए स्वयं देवराज इंद्र को भिक्षा लेने केलिए कर्ण के सम्मुख आना पड़ा तथा कर्ण को यह ज्ञात होते हुए भी की वो दान में उसका जीवन मांगने आये है तब भी बिना विलम्भ किए उन्होंने दान किया। युद्ध के 17 वें दिन जब कर्ण का पराक्रम और क्रोध अपनी ऊंचाइयों पर था उस समय उनके समख आये चारो पांडवो को कर्ण के भली प्रकार रक्त-रंजीत कर लहू का स्वाद चखा दिया था उसी में कही न कही कर्ण ने यह भी बता दिया था की यदि कर्ण को जल्दी ही नहीं मारा गया तो परिणाम क्या हो सकता है। कर्ण का अपनी माता कुंती को दिया गया वचन ही केवल एक ऐसा बंधन था जिसके कारण कर्ण ने अर्जुन के अन्यत्र चारो पांडवो को लहूलुहान कर जीवित रहने दिया था अन्यथा वह महावीर अपने विजय धनुष से किसी के भी प्राण हरने में सक्षम था।
कर्ण मृत्यु से सदैव निर्भीक रहे थे उन्हें ब्रम्हास्त्र  तक की भी कोई चिंता नहीं थी यद्यपि उन्हें शाप था की वो अपनी विद्या को भूल जायेंगे तब भी युद्ध आकर उन्होंने अपने पराक्रम का ही परिचय दिया है।
कर्ण  ने ही कोरवो की सेना को घटोत्कच से बचाया था यदि कर्ण न होता तो युद्ध पहले ही समाप्त हो चुका होता। गुरु परशुराम जी ने उन्हें शाप के साथ-साथ विजय धनुष भी दिया है जिसके सम्मुख तुम्हारा गांडीव धनुष व्यर्थ है जब तक कर्ण के हाथो में विजय धनुष है तब तक तुम्हारे बाण कर्ण को स्पर्श भी नहीं कर सकते इस लिए कर्ण को निहत्था मरना ही एकमात्र उपाय है। 

Saturday, 18 March 2017

ध्रुव की तपस्या


भक्त के लिए भगवान् नंगे पैर भी भागे चले आते है लेकिन एक ऐसा भी भक्त हुआ है जिसने भगवान् को आने पर विवश कर दिया था।
माता सुनीति और पिता उत्तानपात की संतान "ध्रुव" जब पांच वर्ष की आयु के थे तब एक दिन बालक ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठ कर खेल रहे थे उसी समय उनकी छोटी माता "सुरुचि" वहां पर आई और अपनी सौतन के पुत्र को पिता के साथ खेलते देख वो तिलमिला उठी।
उसी समय उन्होंने ध्रुव को उनकी गोद से खीचा और अपने पुत्र को उनकी गोद में बिठा कर कटाक्ष किया की तेरा ऐसा भाग्य कहा की पिता की गोद में बैठ सके.
तब बालक ध्रुव ने अपनी छोटी माता से पुछा की मेरे भाग्य का उदय किस प्रकार होगा ?
में किस प्रकार से अपने पिता की गोद में बैठ पाउँगा ?
माता सुरुचि ने व्यंग कर कहा की तेरे भाग्य का उदय तो अब केवल भगवान् श्री हरी ही कर सकते हैं उनकी तपस्या कर और उनसे वरदान मांग।
तब 5 वर्ष का बालक अपने नन्हे कोमल पैरो से वन की ओर  बढ़ने लगा उसकी काया इतनी कोमल थी की रस्ते की धुप भी नहीं सह सकती थी वो बालक ध्रुव ने अपनी माता से आज्ञा लेकर वन की तरफ प्रस्थान कर गया और एक पेड़ के निचे जाकर भगवान् के भजन के विषय में सोचने लगे उस समय देव ऋषि नारद ध्रुव का मार्गदर्शन करने केलिए आये और उन्हें ॐ नमो नारायणाय का गुरु मंत्र दिया और अंतर्धयान हो गए।

 


गुरु से दीक्षा लेकर 5 वर्ष के प्रह्लाद ने अपनी तपस्या आरम्भ की और उनकी तपस्या इतनी घोर थी की जब वो प्राणवायु को अंदर खीचते तो समस्त सृस्टि की सम्पूर्ण वायु को अनपे भीतर खीच लेते और जब वायु को बहार की तराव छोड़ते तो भयंकर प्रलय ला देते।अपनी छोटी सी उम्र में उन्होंने बड़े-बड़े ऋषि और मुनियो को भी डरा दने वाला तप आरम्भ कर दिया वो अनपे तप की भीषण गर्मी से धरती को भी तापा देने लगे श्रिस्ति में स्थित जीवो में प्रलय आने का सा आभास होने लगा पशु पक्षी मारने लगे जीवो ने जंगलो का त्याग करना आरम्भ कर दिया और अपने पंजो पर खड़े होकर ध्रुव ने धरती को निचे धकेल देने का आभास करा दिया इतनी घोर तपस्या देख इंद्र का सिंघासन भी डोलने लगा और उसने अपनी माया से उत्पन्न राक्षसों को भेज ध्रुव की तपस्या को भांग करने की चेस्टा की लेकिन ध्रुव पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ.



और अत्यंत अल्प समय  के घोर तप के बाद जब भगवान् ने दर्शन दिए तब भगवान् ने वर मांगने को कहा तो जगत पिता को अपने सम्मुख देख ध्रुव की सभी इन्द्रिय निष्क्रिय हो गई और वो भाव विभोर होकर कुछ न कह पाए आखो से अश्रु धारा बहने लगी मुख पर होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाने लगे सारा शरीर स्तब्ध होकर एक ही जगह पर जम सा गया तब अष्ट भुज चक्रधारी भगवान् ध्रुव के निकट आये और उन्हें अपनी गोद में बिठाया  और अपने शंख को उनके मुह पर लगा उनके ज्ञान और इन्द्रियों को जाग्रत किया उसके पश्चात भगवान् बोले हे " भक्त में तुम्हारे अन्तःकरण की बात को जानता हूँ। तुम्हारी  सभी इच्छायें पूर्ण होंगी। तुम्हारी  भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हे वह लोक प्रदान करता हूँ जिसके चारों ओर ज्योतिश्चक्र घूमता रहता है तथा जिसके आधार पर यह सारे ग्रह नक्षत्र घूमते हैं। प्रलयकाल में भी जिसका नाश नहीं होता। सप्तर्षि भी नक्षत्रों के साथ जिसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। तुम्हारे नाम पर वह ध्रुवलोक कहलायेगा।आकाश में स्टेव तुम्हारे नाम से तुम्हारे लोक की दीप्ती को देखा जा सकेगा। इस लोक में छत्तीस सहस्त्र वर्ष तक तुम पृथ्वी का शासन करेगा। समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अन्त समय में तुम मेरे लोक को प्राप्त करोगे।"

Monday, 13 March 2017

विधाता ही सर्वोपरी है

एक समय भगवान् विष्णु का वाहन गरुड़ भगवान् के द्वार पर खड़ा था उस समय वो कल्पवृक्ष के विषय में सोच रहा था। कल्पवृक्ष एक ऐसा वृक्ष है जो सभी कल्पनाओ के सच कर सकता है तथा उसके निचे आने वाले सभी जीवो की कल्पना सत्य होती है। गरुड़ कालवृक्ष से कुछ दूरी पर स्थित होकर भगवान् के द्वार के निकट ऐसा सोच रहा था की भगवान् कितने कृपालु है सब पर कृपा करते है और अत्यंत ही दयालु है।
उसी समय वहाँ पर एक चिड़िया दिखती है जिसकी हालात अत्यंत ही गंभीर होती है जो की मृत्यु के अत्यंत ही समीप होती है उसकी इस दशा को देख कर गरुड़ को उस पर दया आ जाती है और सुको बीमार समझ कर वो जैसे निकट नजर घूमाते है उनको यमराज दिखाई पड़ते है जो की उस चिड़िया को देख रहे होते है गरुड़ तुरंत ही समझ जाता है की यमराज उसके प्राण लेने आये हैं।
गरुड़ उनके कुछ भी करने से पहले चिड़िया को अपने पंजो में दबा पर दूर उदा जाता है और उस चिड़िया को सुमेरु पर्वत पर छोड आता है। तब वापस आकर जब गरुड़ यमदेव को देखता है तो वो मुस्कुराते है और कहते है की गरुड़ मेरा यहाँ पर आने का उद्देश्य भगवान् श्री हरी से मिलना था और जब मैंने उस चिड़िया को यहाँ तड़पते हुए देखा और उसकी मृत्यु देखि तो मैंने देखा की कुछ ही पल में उसकी मृत्यु सैकड़ो मील दूर सुमेरु पर्वत पर सर्प द्वारा निगले जाने से होगी तो में यह सोच कर आश्चर्य चकित हो रहा था की ये छोटी सी चिड़िया इतने कम समय में इतनी दूरी कैसे तय करगी ?
और उसके बाद मैंने वो सब देखा जो तुम्हें अज्ञानता में किया।
इसमें भी प्रभु की ही इच्छा ही हम सभी तो एक कारण मात्र है इन सब कर्मो में। 

Saturday, 11 March 2017

श्री कृष्णा द्वारा असहिष्णुता का पाठ

पांडवो के द्वरा जुए से सबकुछ  हारने के बाद जब उन्हें 13 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास हुआ तब वो 14 वर्षो तक सबसे दूर रहते हुए 1 वर्ष का अज्ञातवास व्यतीत कर जब वापस आकर राज्य में अपने हिस्से केलिए उन्होंने दुर्योधन से कहा से हमें हमारा हिस्सा दो तब उन्होंने अपनी मांगे रखने के लिए श्री कृष्णा को अपना दूत बना कर दुर्योधन के समक्ष भेजा।
श्री कृष्णा द्वरा जब पांडवो के अभिकरो की बात रखी  तब दुर्योधन ने अज्ञानतावश श्री कृष्णा को एक ग्वाला समझ अपने सैनिको को उन्हें बंदी बना लेने का आदेश दिया। उस समय श्री कृष्णा ने दुरोशन के समक्ष ये विचार रखा था की पांडवो को उनके अधिकारों के अनुसार आधा राज्य दिया जाये इसपर दुर्योधन राजी नहीं हुआ इसके उपरांत श्री कृष्णा ने दुर्योधन के समक्ष 5 राज्य तथा 5 गाव के विषय तक में विचार करने के लिये कहा तो दुर्योधन ने कहा की में पांडवो को सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा और यदि इन्हें कुछ चाहिए तो आकर युद्ध कर ले और ले जाए।
महाभारत के उपरांत अर्जुन ने श्री कृष्णा से पुछा की प्रभु आप चाहते तो दुर्योधन को 5 गाव देने के लिए राजी कर सकते थे लेकिन आपने ऐसा किया क्यों नहीं ?
उत्तर में श्री कृष्णा बोले
पार्थ में तो तुम्हे केवल ये बताना चाह रहा था की तुम कितने भी सरल या साधु क्यों न हो यदि सर्प के से मित्रता करोगे तो वो तुम्हे विष के अतिरिक्त कुछ नहीं देगा।
मैंने दुर्योधन के आगे एक छोटी सी मांग 5 गाँवो की परन्तु यदि सामने वाले व्यक्ति ने मन में युद्ध की ही सोची हुई है तो तुम युद्ध से क्यों घबराते हो ?
यदि तुम्हारे अंदर सामर्थ्य है युद्ध करने का और तुम सही पक्ष में हो तो तुम कर्म करने से क्यों घबराते हो ?
पार्थ
यदि में चाहता तो युद्ध टल भी सकता था परंतु इस से दुर्योधन के अत्याचार अत्यधिक बढ़ जाते और वो तुम्हे कमजोर समझने लगता और अपने अत्याचारों को और बढ़ावा देता इस कारण उसके अत्याचारो का दमन करना आवश्यक था यदि में हथियार उठा लेता तो युद्ध पल भर में समाप्त कर देता इस से दुयोधन को कोई सिख नहीं मिलती तुमने युद्ध किया उसके पक्ष के सभी महारथियों को एक एक कर परास्त कर वीरगति की तरफ अग्रसर किया इस से उसका मनोबल टूटा और उसे मानसिक पीड़ा हुई जो वो सभी को पंहुचा रहा था और अंत में उसकी मृत्यु पीडयक हुई जो समाज केलिए एक उदाहरण बन कर सामने आई।
पर्थ जब कभी भी समाज में अपने ही नीचता पर अग्रसर हो तब उनके समक्ष आग्रह करना व्यर्थ होता है उस समय उन्हें दण्डित  करना ही उचित समाधान होता है इसकारण ये युद्ध तुम्हरे द्वारा लड़ा जाना आवश्यक हो गया था। 

Monday, 6 March 2017

असम में धर्म परिवर्तन का धंधा

हर हर महादेव !!

भारत के सभी राज्यो का स्वतंत्रता के बाद से ही अत्यंत ही तीव्र गति से विकास होना आरम्भ हुआ था परंतु भारत के उत्तर पूर्वी राज्यो के साथ ऐसा कुछ नहीं हो पाया है आज के आधुनिक समय में भी असम,अरुणाचल,सिक्कीम के लोग स्वयं को भारत से कटा हुआ समझते है और गरीबी तथा अशिक्षा ने ऐसा पैर फैलाया है की दंगो का निज ताँता लगा रहता था। पूर्व काल में भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी भी वह से राज्यसभा के संसद रह चुके है तब भी वह पर विकास की कोई लहार तनिक मात्रा भी दिखाई नहीं दी।
अंग्रेजो के समय से ही अरुणाच भारत का पर्यटन स्थल रहा है परंतु अंग्रेजो  का वह पर रहना तथा विकास करना वहां के निवासियों की भलाई के लिए नहीं था अपितु स्वयं की भलाई के लिए था। जब भारत में इंग्लैंड वासी आये तथा उन्होंने भारत की जलवायु को देखा तो उन्हें आभास हो गया की ऐसी जलवायु में अधिक दिन जीवित रह पाना किसी चुनोती से अलग नहीं है। उस समय पर अंगेजो ने भारत में राज करने के लिए एक अलग योजना के विषय में सोचा तथा भारत के ठन्डे क्षेत्रो में अपने निवास स्थान और कार्यालयों को प्रभुत्व दिया जिस से उन्हें भारत की जलवायु में रहने का आदि बनने में सुगमता हो।
इसी के साथ उन्होंने आरम्भ किया भारत में धर्म परिवर्तन का धंधा आरम्भ में धर्म परिवर्तन पैसो के बदले तथा चिकित्सा के बदले में किया जाता था। यदि कोई व्यक्ति ज्वर से तड़प रहा है तथा वह हिन्दू है तो उसका निरिक्षण केवल और केवल तभी किया जायेगा जब वो ईसाई बन जायेगा इस मध्य चाहे वह व्यक्ति पीड़ा से मर ही क्यों न जाये लेकिन पूर्णतः ईसाई बनाने के बाद ही उसका निरिक्षण किया जाये ऐसा अंग्रेजो ने नियम बना लिया तथा ईसाई बनाने के बाद अत्यंत ही सुगमता से सुख सुविधा उपलब्ध कराइ जाने लगी जिससे लोगो का ईसाइयत के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा तथा लोगो ने अपना धर्म त्यागना आरम्भ कर दिया।
अंग्रेजो ने भले ग्रामवासियो को यह तक पाठ पढ़ाया की तुम जिस प्रकार से ईश्वर की वंदना करते हो वह तरीका गलत है यदि तुम अंग्रेजी में ईश्वर की वंदना करोगे तब तुम्हे कोई भी कष्ट नहीं होगा और ईश्वर भी तुम्हारे साथ होगा। उन्होंने सभी दुखो का कारण केवल गलत ईश्वर की उपासना तथा गलत तरीके का उपयोग किया जाना बता दिया। भारतीयों ने अपने अत्यंत ही क्रूर उत्पीडन के बाद ये समझ लिया की वो सच में गलत ईश्वर तथा गलत तरीके से ईश्वर की वंदना कर रहे है।
इसके बाद यदि किसी भारतीय को उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना हो तो उसे पहेल अपना धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनना पड़ता था। आज के समय में भी ईसाई संस्थानों ने अपने पैर जमाये हुए है किसी भी प्रकार की आपदा प्राकतिक या फिर मानवनिर्मित आने पर इनका प्रथम कर्तव्य है "बाइबिल" बाँटना और लोगो को ये समझाना की दवाइयों से कुछ ठीक नहीं होता जो ठीक होता है वो केवल "प्रभु यीशु" से प्रार्थना करने से होता है।  आपदा से त्रस्त लोगो की भूख बाइबिल के पृष्ठ मिटायेंगे और घावों पर पट्टी की जगह उन्ही पृष्ठों को आसुओ में भिगो कर लपेटने से शारीरिक कष्ट दूर होगा। यदि कोई व्यक्ति गलती से चिकित्सालय पहुच भी जाये तो तड़प से प्राण त्यागने को आतुर होने पर उसे बाइबिल  लिखित ईश्वर वाणी सुनाई जाएगी जिस से उसकी पीड़ा कम ओ जाएगी और वह एकदम स्वस्थ होगा। मानव शरीर को कोई भी पीड़ा प्रभु यीशु की पीड़ा के समक्ष कुछ नहीं है ऐसा बता कर उनकी पीड़ा का मजाक बनाया जाता है।
प्रत्येक वर्ष लाखो करोड़ की विदेशी मुद्रा केवल इस लिए भारत में आती है जिस से भारत में रहने वाले हिन्दुओ को धर्मान्तरित कर ईसाई बनाया जा सके और भारत में ईसाइयत का प्रचार और प्रसार किया जा सके असम में सरकार का कोई भी हताक्षेप न होने के कारण वहाँ पर यह धंधा बिना किसी रोक टोक के चल रहा है क्योके सरकार वहाँ पर कोई विकास करना नहीं चाहती और ईसाई मिशनरिया वह पर अपने विद्यालयों और अस्पतालों का निर्माण कर उनमे इस काम को भली भाती चला रही है। कांग्रेस सरकार ने इस धंधे को बढ़ावा भी दिया था जिस से विदेशो में जमीन और विदेशी बैंको में धन प्राप्त हुआ उन्हें और मंदिरो को तुड़वा कर वह पर किसी परियोजना का बहाना बना कर धर्म का नाश करना तथा उन जगहों पर गिरजाघरों का निर्माण करना उनकी प्रवत्ति बन चुका था। उत्तराखंड में भी कुछ इसी प्रकार का निर्माण करने के बहाने से विश्वनाथ मंदिर का कुछ हिस्सा तोड़े जाने की वजह से उत्तराखंड में त्रासदी आना। धर्म विशेष के प्रति घृणा की भावना रखना तथा स्वयं के स्वार्थ के लिए कार्य करना केवल धन केलिए ये कोंग्रेस की नीति बन गई है।

Saturday, 4 March 2017

स्वयंभू की नगरी लंका

सभी श्रुतियो और लिपियों  के अनुसार देवादिदेव महादेव पर्वतो पर रहकर अपने जीवन को व्यतीत करते है और माता पार्वती वही पर उनकी सेवा कर अपने जीवन को सुखपूर्ण यापन करती हैं परंतु एक समय देवी लक्ष्मी जी ने देवी पार्वती को बैकुंठ स्थित अपने लोक के दर्शन के लिए बुलाया और वहाँ की छठा और आभा को देख देवी पार्वती मोहित हो गई।वापस आकार देवी पार्वती ने भगवान् भोलेनाथ से कहा की वो ऐसे जंगलो और पहाड़ो पर रहकर खुश नहीं है उन्हें भी एक नगरी चाहिए को बैकुंठ के सामान हो जहा पर सभी वस्तुएं स्वर्ण निर्मित हों और वो देवी लक्ष्मी को दिखा सकें।
ऐसा देख स्वयंभू ने कहा कि देवी यदि हमारे भाग्य में कोई नगरी होती तो हम ऐसे स्थान पर क्यों रहते? में एक योगी हूँ जो चिरकाल तक योग और तपस्या में अपना जीवन व्यतीत करता है उसे घर और विलासिता की क्या आवश्यकता ?
तुम मेरी बात मानो और ऐसे विचार त्याग दो ।परंतु देवी तो हठ कर के ही आई थी तो स्वयंभू ने कहा कि ठीक है यदि नहीं मानती हो तो अभी देवशिल्पी विश्वकर्मा को बुला कर मैं आपका आग्रह पूर्ण करता हूँ परंतु में अभी भी कह रहा हु कीकी हमारे भाग्य में विलासिता नहीं है।ऐसा कह कर देवशिल्पी को बुला कर भगवान् भोलेनाथ ने कहा कि महाराज ऐसे राज्य का निर्माण कीजिये जैसा कही ना ही और उसका स्थान अत्यन्त ही मनोहर और रमणीय हो उसमे नानां प्रकार के वृक्ष बगीचे ही ऐसी सड़को का निर्माण कीजिये जो कभी भी ख़राब ना हो महल का निर्माण अत्यन्त ही कुशल शिल्पियों द्वारा कराएं और किसी भी प्रकार की कोई त्रुटि ना हो महल का निर्माण केवल स्वर्ण से हो इसके अन्यत्र कोई भी धातु न प्रयोग की जाये सभी वस्तुएँ स्वर्ण की हो उसके अन्यत्र कोई धातु न हो।ऐसा आदेश प्राप्त कर विश्वकर्मा जी ने एक रात में स्वर्ण नगरी लंका का निर्माण किया और प्रभु को गृहप्रवेश के लिए हवन करने को कहकर आज्ञा लेकर चले गए।
हवन के लिए महादेव जी ने उस समय के प्रकांड ब्राह्मण श्री विश्रवा जी से आग्रह किया परंतु ऋषि ने अपना समय किसी और के यहाँ यज्ञ होने के कारण से अपने पुत्र रावण के आने का आश्वासन दिया।
भोलेनाथ ने भविष्य की होने वाली घटना को देख कर माता पार्वती को अपने पिता श्री के घर निमंत्रण देने भेज दिया और उनकी अनुपस्थिति में यज्ञ आरम्भ कराया ।
यज्ञ संपन्न होने के बाद जब स्वयम्भू ने दक्षिणा के लिए रावण को पूछा तो रावण ने 2 आग्रह किये पहला था स्वर्ण नगरी लंका और दूसरा था माता पार्वती।
स्वर्ण नगरी लंका को यह कह कर दान कर दिया की मुझे पता था कि हमारे भाग्य में विलासिता नहीं है और माता पार्वती को यह कह दिया की वो मेरे वश की बात नहीं है।
इतने में पर्वती ने आकर यह सब देखकर रावण को यह शाप दे दिया की यही नगरी जल कर राख बनेगी और रूद्र के अंश द्वारा ही ऐसा होगा तेरी राक्षस प्रवत्ति के कारण तू अब राक्षस कुल में रहेगा और तेरे कर्म दिन प्रतिदिन नीच होते जायेंगे और यही तेरी मृत्यु का कारण बनेंगे।

Saturday, 25 February 2017

ऋषि कौशिक : अपने तपोबल से ब्रम्हत्व को प्राप्त करने वाले

भारत भूमि में ऋषियों की आदिकाल से ऋणी रही है परंतु भारत भूमि में कुछ ऋषि ऐसे भी हुए है जिन्होंने ब्रम्हत्व को अपनी तपस्या से प्राप्त किया है उन्ही में से एक ऋषि थे "कौशिक" इनका जन्म एक क्षत्रिय कुल में हुआ था जो की उस समय के प्रतापी राजा थे। आगे चलकर इन्होंने आर्यावर्त की कमान संभाली और अति लोकप्रिय राजा हुए। इसी मध्य एक समय जब जो अपनी रानियों और पुत्रो सहित भ्रमण केलिए निकले तो मार्ग में ऋषि वशिष्ठ की कुटिया देख ऋषि को प्रणाम किया तभी ऋषि ने आदर भाव से महाराज कौशिक को भोज के ये कहा और महाराज ने वो स्वीकार कर लिया। एक ऋषि की कुटिया से 56 भोग मिलने से कौशिक आश्चर्य में थे। उन्होंने इस विषय में ऋषि वशिष्ठ से पुछा तो उन्होंने सरल स्वाभाव में कहा की उनके पास स्वर्ग की देव गौ कामधेनु की पुत्री नंदिनी है जो इस प्रकार के चमत्कार अति सरलता से कर सकती है।
ऐसा सुनने के पश्चात राजा कौशिक ने उस गौ को प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की जो की ऋषि ने सीधे शब्दो में अस्वीकार कर दी।
एक ऋषि के द्वारा राजा का अपमान ऐसा सोचकर कौशिक ने नंदिनी को अपने बल केमाध्यम से प्राप्त करने का प्रयास किया तब नंदिनी ने वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर राजा की पूर्ण सेना और उनके पुत्रो को युद्ध में परास्त कर सभी को नष्ठ कर दिया और राजा को भी बंदी बना कर वशिष्ठ जी के समक्ष रख दिया। अपनी ऐसी गति देखकर और एक ब्राह्मण से पराजित होकर महाराज कौशिक को अति अपमान प्रतीत हुआ और उन्होंने इसी का प्रतिशोध लेने के लिए हिमालय की कंदराओ में जाकर भोलेनाथ की उपासना करते है। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें वर मांगने को कहते है तब वो वरदान में महादेव से युद्ध करने की कला सीखते है और धनुर्विद्या से लेकर सभी अस्त्रो और शास्त्रो की विद्या ग्रहण करते है। वरदान प्राप्त करने के बाद वो वशिष्ट जी आश्रम जाकर उन्हें युद्ध करने की चुनोती देते है जिस से दोनों के मध्य भीषण युद्ध होता है यह युद्ध अत्यंत प्रलयंकारी होता सम्पूर्ण श्रिस्ति को हिला देने बल ये युद्ध अंतिम कारण में तब पहुचता है जब गुरु वशिष्ठ जी अपने धनुष पर ब्रम्हास्त्र की पत्यांचा चढ़ा लेते है ऐसा देख देवता भी अपने लोक छोड कर उनके युद्ध को रोकने के लिए आ जाते है।
ब्रम्हास्त्र का काट केवल ब्रम्हास्त्र से किया जा सकता है परंतु यदि ब्रम्हास्त्र आपस में टकराते भी है तो भी उनकी ऊर्जा प्रलय लाने में समर्थ होती है। ऐसा भयंकर युद्ध देख कर देवता लोग दोनों से आग्रह करते है की वो अपना युद्ध श्रस्टि को विनाश से बचाने के लिए बंद कर दे। उस समय गुरु वशिष्ठ जी को विजित मान कर युद्ध को रोक दिया जाता है परंतु इस से कौशिक जी का क्रोध और बढ़ जाता है और वो यह सोचने लगते है की एक ब्राह्मण की योग शक्तियों के समक्ष इस क्षत्रिय देह का कोई सामर्थ्य नहीं है इस से कुपित होकर वो फिर से हिमालय की कंदराओ में जाकर अन्न का त्याग कर कंद मूल का सेवन कर वर्षो तक तपस्या करते है और इसके बाद उन्हें राजश्री का पद प्राप्त होता है ।
परंतु अभी भी उन्हें संतुस्टी प्राप्त नहीं होती। वे अपनी ज्ञान मीमांसा को बढ़ने के लिए तप ने निरन्तर लगे रहते है जिससे की उन्हें वाशिष्ट जी से इंच पद प्राप्त हो और वे अपने अपना का प्रतिशोध ले सकें परंतु जब तक ऋषि के मन में अहंकार रहता है तब तक वो ब्रह्मज्ञानी नहीं बन सकता इस बात से कौशिक जी अवगत नहीं थे।
उसी काल में एक राजा हुए जिनका नाम त्रिशंकु हुआ और उन्होंने जीवित स्वर्ग जाने की इच्छा सभी ऋषियों के आगे रखी परंतु  कोई भी ऋषि ऐसा करने के लिए  तैयार नहीं हुआ तब त्रिशंकु ने गुरु वशिष्ठ से अपनी ये इच्छा कही और गुरु ने यह कह  मना कर दिया की ये प्रकृति के विरुद्ध है। त्रिशंकु को यह ज्ञात था की गुरु वशिष्ठ के पुट भी उठे ही ज्ञानी है तब उसने यही याचना उनके पुत्रो से कही।  उनके पुत्रो ने इसे अपने पिता का अपमान समझ कर त्रिशंकु को चांडाल होने का शाप दे दिया।
इस सभ के बाद त्रिशंकु ने यही याचना ऋषि विश्वामित्र से की तब विश्वामित्र ने उनकी इच्छा पूरी करने का वचन दिया और यज्ञ केलिए सभी ब्राह्मणों और पुरोहितो को आमन्त्रित किया इसमें उन्होंने गुरु वशिष्ठ के पुत्रो  को भी आमन्त्रित किया परंतु उन्होंने यह कह कर निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया की जिस यज्ञ का  क्षत्रिय पुरोहित कर  और जो यज्ञ के चांडाल की इच्छा पूर्ती के लिए हो रहा हो  हम नहीं आएंगे।
ऐसा सुनकर  विश्वामित्र ने उन्हें तभी उन्हें शाप देकर भस्म कर दिया ऐसा देख बाकि सभी पुरोहित तथा ब्राह्मण भय वश उनके यज्ञ में सहायता देने आ पहुचे विश्वामित्र द्वारा अति घनघोर यज्ञ का आयोजन किया गया यज्ञ के बाद देवताओ का आह्वान किया गया लेकिन देवता नहीं आये तब ऋषि ने अपने तबबल से त्रिशंकु को सहशरीर ही स्वर्ग की तरफ भेज दिया।
इंद्र ने यह कहकर त्रिशंकु  को स्वर्ग में आने की अनुमति नहीं दी की वह शापित है। 
इस से क्रोधित होकर विश्वामित्र ने अपना वचन पूरा करने के लिए नए स्वर्ग का निर्माण किया ऐसा देखकर इंद्र  को अपनी सत्ता खतरे में दिखने लगी तब इंद्र ने ऋषि कौशिक से ऐसा न करने की याचना की और कहा की ऐसा करने से पृथ्वी के संतुलन को खतरा है। 
ऋषि कौशिक ने इंद्र को यह आश्वासन दिया की इस से ऐसा कुछ नहीं होगा और देवताओ की सत्ता को भी कोई हानि नहीं होगी वह केवल अपना वचन पूरा करने के लिए ऐसा कर रहे है कह कर उन्होंने इंद्र को आश्वस्त किया और त्रिशंकु को अपने वचन के अनुसार नए स्वर्ग का निर्माण कर उसका स्वामित्व दिया। 
इसके बाद ऋषि कौशिक ने फिर से ब्रह्मा जी का तप करना आरम्भ किया और अपने ब्रह्म ऋषि होने की इच्छा को पूरा किया। ब्रह्माजी ने उन्हें ब्रह्मऋषि के साथ साथ ॐ तथा गायत्री मंत्र का भी ज्ञान दिया। अपने घनघोर तप से ऋषि कौशिक ने अपने क्रोध तथा अहंकार पर विजय प्राप्त की और इसके बाद ही ऋषि वशिष्ठ ने इन्हें ब्राह्मण रूप में अभिनन्दन किया तथा विश्वामित्र का नाम दिया। 

इसके बाद विश्वामित्र ने शस्त्रो का त्याग कर शास्त्रो को अपना लिया तथा आश्रम में शिक्षा देनी आरम्भ की एक समय जब विश्वमित्र को आर्यावर्त को  फिर से एक बड़ा और कुशल राजा देने की इच्छा हुई तब वो फिर से तपस्या में लीं हुए तब इंद्रा ने उनके तप को अपने से तेजस्वी राजा के शाशन से ईष्या कर स्वर्ग की अप्सरा मेनका को उनकी तपस्या भंग  करने के लिए भेजा मेनका ने अपनी सुन्दरता से ऋषि को लुभावित किया और उनके साथ सम्भोग किया इसके फल से उनकी एक पुत्री पैदा हुई ऋषि के तेज से वह अत्यंत ही गुणवान हुई और आगे चलकर उस कन्या ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम भारत हुआ और जिसने अपने शाशन से यह सिद्ध कर दिया की ऋषि की तपस्या भंग नहीं हुई थी उसके विपरीत वह उन्ही की इच्छा थी।

श्री राम की शिक्षा 

जब विश्वामित्र ने शस्त्रो का त्याग किया उसी समय से राज्य से राक्षसों का प्रभुत्व बढ़ने लगा और सामान्य जानो को अत्यंत ही दुखो का सामना करना पद रहा था। एक समय गुरु विश्वामित्र के एक शिष्य को राक्षसी तड़का ने अत्यंत ही निर्मम तरह से नोच खसोट कर मृत्यु से आलंगित कराया यह देख विश्वामित्र स्वयं से घृणित होने लगे।  विश्वामित्र को यह लगने लगा की वो अत्यंत ही दिव्य अस्त्रो के ज्ञात होने के पश्चात भी कुछ नहीं कर सकते थे।यदि राजा ही निष्क्रिय हो तथा उसे प्रजा के किसी भी दुख का ज्ञान न हो तो असामाजिक तत्वों का बोलबाला होला स्वाभाविक है। विश्वामित्र ने ग्रामीणों की ऐसी हालात को देख कर उन्हें सबल बनाने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी परंतु इस से कोई अत्यंत प्रभाव नहीं बनने वाला था। ऋषि विश्वामित्र ने अस्त्रो का त्याग कर गुरु के पद को प्राप्त किया था तथा वह यह भी जानते थे की राजा दशरथ अत्यंत ही दयालु राजा है तथा राज्य का प्रसार अधिक होने के कारण वह सब जगहों पर धयान  देने में असमर्थ है तथा प्रजा का कोई भी व्यक्ति रावण के दैत्यों के कारण से राजा तक अपने कष्टो को पहुचने में असमर्थ हो गया था ।  इस कारण विश्वामित्र ने स्वयं ही राजा से वार्तालाप के लिए वहाँ जाना उचित समझा।
राज्य में विश्वामित्र जैसे प्रतापी ऋषि के आने का समाचार सुनकर महाराज ने पालक पावड़े बिछा दिए तथा अपना सिंहासन छोड़कर ऋषि को स्थान दिया। अतिथि भाव देखकर ऋषि अत्यंत प्रसन्न हुए और राजा को सभी बातो का विवरण दिया रावण के अनुचरो द्वारा प्रजा की अत्यंत ही दूर्दश हालात का विवरण सुनकर महाराज की आँखे भर आई तथा महाराज ने इसके उपाय के विषय में जब ऋषि से पुछा तो उनके मुख से केवल एक ही शब्द निकला "राम"
ऐसा सुनकर महाराज को पीड़ा तो हुई परंतु राजधर्म और श्री राम की शिक्षा के विषय में सोचकर उन्होंने श्री राम को शिक्षित करने के लिए परम प्रतापी क्षत्रिय राजा वर्तमान ब्राह्मण आचार्य को समर्पित किया।
आश्रम में आते ही श्री राम का पहला प्रश्न गुरु से ये था की जब आप इतने पराक्रमी है और सभी अस्त्रो तथा शास्त्रो के ज्ञात है तो आप ही इन सभी राक्षसों का अंत कर राज्य में शांति की स्थापना क्यों नहीं करते ?
इसका उत्तर देते हुए ऋषि ने कहा की ब्राह्मण तपस्या कर  तेज एकत्रित करता है समाज कल्याण के लिए शक्ति का होना और उसका सही प्रकार से वितरण करना ही समाज कल्याण है यदि यही शक्तिया किस राक्षस को दे दी जाये तो समाज का ह्रास ही होगा इसी लिए गुरुजनो को शक्ति का प्रयोग युद्ध के लिए वर्जित है।
ऋषि के आश्रम में रहकर श्री राम बाल्यकाल से ही अत्यंत निर्भिक थे उसके बाद विश्वामित्र से अस्त्रो और शास्त्रो का ज्ञान पाकर उनके पराक्रम में अत्यंत ही तेज शुशोभित हो गया था सभी प्रकार के अस्त्रो का होना ही आधे भय की मुक्ति है तथा अस्त्रो का प्रयोग किस समय किस व्यक्ति पर करना है ये भी एक युक्ति है जो की ब्राह्मण ने उन्हें सीखा दी थी उसके बाद एक के बाद एक राक्षस का अंत कर उन सभी अस्त्रो का प्रयोग भी हो चूका था जिस से की उनके मन में अस्त्रो को लेकर कोई भी शंका नहीं बची थी।
महाराज दशरथ ने भी जब उनके इस पराक्रम के विषय में सुना तब वो भी हर्षित होकर ऋषि के समक्ष नतमस्तक हो गए और रामराज्य की कल्पना कर अत्यंत ही आनंदित हो उठे।
श्री राम ने गुरु से शिक्षा लेकर अपनी प्रजा को भय मुक्त किया तथा राज्य में शांति की स्थापना की।
रावण ने अपने सभी राक्षसों को वापस बुला लिया तथा अपने राज्य को लंका तक ही सिमित कर लिया।
भगवान् भोलेनाथ की कृपा से प्राप्त सोने की लंका में उसे कोई भय नहीं था तथा उसे भेद पाना भी संभव नहीं था।

Saturday, 18 February 2017

दानवीर कर्ण


कुंती के ज्येष्ठ पुत्र कर्ण ने यद्यपि अपना सम्पूर्ण जीवन ये लांछन झेलते हुए निभाया की वो सूत पुत्र है परंतु उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को ये सुनते हुए भी व्यतीत किया की उनके जितना महान दानी भी कोई नहीं है।
इस श्रिस्टी में 2 ही राजाओ ने भगवान् को दान स्वरुप कुछ दिया है उनमे से एक थे राजा बलि और दूसरे थे अंगराज कर्ण।
कर्ण ने दान देना अपनी दिनचर्या बना लिया था वो प्रत्येक दिन सुबह उठते और नदी में स्नान  सूर्यदेव को अर्ध देकर जो भी उनके सम्मुख आता उसे मुह माँगा दान देते।
जब महाभारत का भीषण युद्ध चल रहा था उस समय पर भी कुछ ऐसा ही हुआ।
एक रात सूर्यदेव ने अंगराज को दर्शन दिए और बताया की वो ही उनके पिता है और उनका अंश है इसी कारन वो यह बताने आये थे की कल सुबह जब तुम दिनचर्या की तरह दान देने जाओगे तो देवराज इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण कर तुम्हरे सम्मुख आएंगे और तुमसे तुम्हारे कवच और कुंडल मांग लेंगे तुम पहले ही सचेत रहना और उन्हें ये मत देना।
तब कर्ण ने कहा की हे पितादेव मैंने अपने सारे जीवन में जिसने जो माँगा उसे वो दिया है और यदि कल में ऐसा करता हु तो मेरे द्वारा दिया गया सारा दान निष्फल हो जायेगा आने वाला समय मुझे काया की नजरो से देखेगा और कहेगा की ये वही सूर्यपुत्र कर्ण है जिसने अपनी मृत्यु के भय से दान नही किया।
ऐसा सुनकर सूर्यदेव कहने लगे पुत्र मेरा कार्य था तुम्हे छल से सचेत करना अब तुम्हारी इच्छा है आगे की सोचना।
अगली प्रातः दिनचर्या के अनुसार जब कर्ण कुंड से बहार आये तब इंद्र ब्राह्मण वेश में आकर दान की याचना करने लगे कर्ण ने पुछा की क्या चहिये ब्राह्मण तब उन्होंने कर्ण के कवच और कुंडल की माग की और कारण ने अपनी कटार से अपने शरीर को लहूलुहान कर उन्हें कवच और कुंडल दे दिए।
इस से प्रसन्न होकर इंद्रा ने अपना असली रूप दिखाया और कहा की तुमने ज्ञात होते हुए भी मुझे दान दिया इस कारण में तुमसे प्रसन्न हुआ हु तुम कोई वरदान मांगो।
कर्ण ने वरदान लेने से इनकार किया और कहा की दान के बदले में कुछ लेने से दान का अपमान होगा।
तब इंद्रा ने कहा की दान तुमने ब्राह्मण को दिया था वरदान तुम्हे इंद्र दे रहा है तो तुम वरदान स्वरुप कुछ मागो।
इसपर कर्ण ने उनसे शक्ति अस्त्र माँगा और इंद्र ने अस्त्र देते हुए कहा की इसका प्रयोग कम केवल 1 बार ही कर सकते हो उसके जवाब में कर्ण ने कहा की मुझे दूसरी बार इसकी आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। 

Saturday, 11 February 2017

दानवीर कर्ण से पूर्व


महाभारत युद्ध से शायद ही कोई न परिचित हो. कुरुक्षेत्र में महाभारत जैसा बहुत भीषण युद्ध लड़ा गया था जिस में बहुत सी जाने गयी और इसी कारण आज भी करुक्षेत्र के मिटटी का रंग लाल है. महाभारत ग्रन्थ की रचना ऋषि व्यास ने करी थी जो काफी विस्तृत है तथा इसमें अनेक घटनाओ और पहलुओ का वर्णन है. महाभारत की कथा हम बचपन से सुनते और पढ़ते आ रहे है फिर भी महाभारत से जुडी कुछ घटनाये ऐसी है जो हम में से बहुत कम ही लोग जानते है.

महाभारत की इन्ही अनसुनी कथा में से एक है महाभारत के वीर योद्धा दानवीर कर्ण के पूर्व जन्म से जुडी गाथा. कर्ण कुंती के पुत्र और पांडवो के ज्येष्ठ भ्राता थे परन्तु क्षत्रिय होने के बावजूद वे सूत्र पुत्र कहलाये. वे न केवल अर्जुन से कुशल धनुर्धर थे बल्कि उनसे कुशल योद्धा भी थे फिर उन्हें वह सम्मान प्राप्त नही हो पाया जिसके वे वास्त्विक हकदार थे. इन सब का कारण केवल एक ही था की वे सूत पुत्र थे. कर्ण हमेशा धर्म की राह पर चले तथा उन्होंने अपनी आखिर सांसो तक मित्र धर्म का पालन किया. इसके बावजूद कर्ण की पूरी जिंदगी कष्टो से भरी रही, इन सब का कारण था उनके पूर्व जन्म में किये गए पापो का फल जो उन्हें इस जन्म में भुगतना पड़ा.

अपने पहले जन्म में कर्ण एक असुर थे जिसका नाम दंबोधव था. दंबोधव ने भगवान सूर्य की तपस्या  कर उन्हें प्रसन्न किया तथा उनसे वरदान माँगा की उनके द्वारा उसे सो कवच प्राप्त होंगे साथ ही उन कवच पर केवल वही व्यक्ति प्रहार कर सके जिसके पास हज़ारो सालो के तप का प्रभाव हो. दंबोधव यही पर शांत नही हुआ उसने भगवान सूर्य से यह भी वर मांग लिया की कोई साधारण व्यक्ति इस कवच को भेदने का भी प्रयास करे तो उसकी मृत्यु उसी क्षण हो जाये क्योकि सूर्य देव दंबोधव के कठिन तपश्या से बहुत प्रसन्न थे अतः यह जानते हुए भी की दंबोधव को दिया वर संसार के लिए कल्याणकारी न होगा उन्होंने यह वर उसे दे दिया. वरदान मिलते ही दंबोधव अपने वास्त्विक स्वभाव में आ गया तथा उसने निर्दोष प्राणियों को मारना शुरू कर दिया. उसने अपने शक्तियों के प्रभाव से सारे वनो और आश्रम को जला दिया.

दंबोधव के आतंक से परेशान होकर प्रजापति दक्ष की पुत्री मूर्ति ने भगवान विष्णु की तपस्या  कर उन्हें प्रसन्न किया तथा वरदान स्वरूप उनसे सहस्त्र कवच के अंत का वरदान माँगा. भगवान विष्णु बोले की वे स्वयं सहस्त्र कवच का अंत करेंगे तथा उसका माध्यम मूर्ति ही होंगी. कुछ समय पश्चात मूर्ति ने नर-नारायण नाम के दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया, जो शरीर से तो अलग थे परन्तु वे कर्म, मन और आत्मा से वे एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. नर और नारयण ने संयुक्त प्रयास से 99 कवच काट डाले परन्तु जब एक कवच शेष रह गया था उसी समय नरायण तपस्या  में लीन हो गए तथा दंबोधव मौका देख युद्ध स्थल से भाग गया और सूर्य देवता की शरण ले ली.

जब नर और नारायण दंबोधव को ढूढ़ते हुए सूर्य के पास पहुंचे तो सूर्य देव उनसे बोले “हे ईश्वर, मैं मानता हूं दंबोधव एक बुरी आत्मा है, लेकिन इसने अपनी कठोर तपस्या के बल पर वरदान हासिल किया, इसका फल उससे मत छीनिए. वह मदद के लिए मेरी शरण में आया है”.नर और नरायण सूर्य देव से क्रोधित हुए तथा सूर्य देव सहित दंबोधव को भी श्राप दे डाला की दोनों को ही अगले जन्म में अपने कर्मो का फल भुगतना पड़ेगा. इस तरह द्वापर में दंबोधर का अगले जन्म में कर्ण के रूप में जन्म हुआ.कर्ण का जन्म उसी सुरक्षा कवच के साथ हुआ था जो उनके पूर्व जन्म में दंबोधव के रूप में उनके पास शेष रह गया था.

Thursday, 9 February 2017

उत्तर प्रदेश चुनाव : दलित बनाम स्वर्ण



भारतीय राजनीती में वाक्य ये रहा है की दिल्ली की सत्ता लखनऊ से चलती से वो इस कारण रहा है क्योके अभी के समय पर उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य उभर कर आ रहा है। कल पहले चरण के मतदान के साथ ही उत्तर प्रदेश की जुबानी जंग भी खतम्म होने वाली है। उत्तर प्रदेश को मुख्यतः दो भागो में बनता जाता है 1.पुर्वी 2.पश्चिमी

पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुछ क्षेत्रो के अन्यत्र कही पर भी भाजपा का जितना असम्भव सा ही होता है परतु इस बार के लोकसभा चुनावो से ये बात साफ़ हो गई थी की जनता गुंडाराज से तंग आकर कुछ बदलाव लेन की इच्छा में है। पहले के दिनों में उत्तर प्रदेश में मायावती दलितों से हितो में बात करने वाली मंजी जाती थी परंतु अपने एक ही शाशन काल में जो उन्होंने सरकारी खजाने का माह प्रयोग किया था उसके बाद वो अपनी आरक्षित सीट पर भी नहीं जीत पाई। स्वयं को दलित कहने वाली मायावती का जन्म एक दलित पारिवर में हुआ था और राजनीती में आने के बाद उन्होंने "बोद्ध" धर्म अपना लिया लेकिन वो अभी भी स्वयं ही कहती है!!!

ये आश्चर्य की बात है की जो महिला स्वयं दलित जाती में नहीं रही वो दलितों की मसीहां बन कर उनके साथ किस प्रकार छल कर रही है।यद्यपि किसी के हिट की बात करना गलत नहीं है परंतु केवल दलितों के हिट की बात करना और उनके हितो की बात कर स्वर्णो पर अत्याचार करना भी सही नहीं है। आज के समय पर "टीना डाबी " जैस दलित को केवल इस कारण अच्छी नोकरी मिल जाती है की वो दलित है और "अंकित गर्ग" जैसे व्यक्ति व्यक्ति को केवल इस लिए नहीं मिलती क्योकि वो स्वर्ण है।
बुंदेलखंड जैस क्षेत्र जहा पर पानी और विद्युत् की अत्यधिक समस्या है वहां पर यदि प्रधानमंत्री जल प्रबंधन करते है तो राज्य सरकार द्वरा ये कह कर रोक दिया जाता है की दलितों की वोट लेने के लिए ऐसा किया जा रहा है।

"अमेरिका" के संविधान के निर्माण के समय जब वह के सांसदों ने नीग्रो लोगो केलिए आरक्षण की मांग की तो उसे यह कह कर ठुकरा दिया गया की "यदि आज हम इन्हें आरक्षण देते है तो कल को ये कुछ नहीं करेंगे अपने आरक्षण पर जियेंगे और देश पर बोझ बनेंगे इस लिए इन्हें आरक्षण की जगह समानता का अधिकार दिया जाये"
यदि भीमराव आंबेडकर जी ने सारी दुनिया के संविधानो से सही नियमो को चुन कर हमारे संविधान का निर्माण किया था तो उनसे अमेरिका कैसे छूट गया ?
क्या वो सारी दुनिया सैर सपाटे के लिए गए थे या काम के लिए गए थे ?

2 . पश्चिमी उत्तर प्रदेश कुछ क्षेत्रो को छोड़ कर भाजपा का गढ़ रहा है। इसका मुख्य कारण ये भी है की यहाँ पर अधिकतर समाज स्वर्ण जाती है।
इसी कारण से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दिल्ली से लगे क्षेत्रो को के अन्यत्र किसी भी क्षेत्र का विकास नहीं हुआ है। किसानों को सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता है विद्युत् के लिए आकाशीय विद्युत् पर फसल ख़राब होने पर किसी भी प्रकार की सहूलियत प्राप्त होने तक आत्महत्या के कई विफल प्रयास किए जा चुके होते है। किसान के लिए अपने परिवार को छोडकर मरना भी सरल नहीं होता और कर्ज उसे जीने नहीं देता।
मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी में तो काफी डाव दिखाए है परंतु राजनीती में केवल रंग दिखाए है सभी प्रकार की सेवाएं केवल यादवो और मुस्लिमो केलिए देने वाले ये नेता आज उस दल को मिलकर हराने में जुटे है वो 16 वर्षो से उत्तरप्रदेश की राजनीती से विलुप्त है।
नतीजे निकट ही है देखना ये है की ऊँट किस करवट लेटता है।

Tuesday, 7 February 2017

महारथी कर्ण : मृत्यु के कारण

महाभारत के महान योद्धाओ में से एक कर्ण थे जिनको परास्त करना किसी भी योद्धा के साहस की बात नहीं थी कर्ण  एक ऐसी महाथी थे जो पल भर में सैकड़ो सैनिको के प्राण हरण कर रहे थे लेकिन अंत में उनकी मृत्यु हुई जो की उनको शापो के कारण संभव हुई।
"सूर्यपुत्र महारथी कर्ण" को 3 शापो के कारण युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई
  • पहला शाप गुरु परशुराम का था जो की उन्हें तब दिया गया था जब वो परशुरामजी से शिक्षा ले रहे थे। जब कर्ण परशुरामजी से शिक्षा लेने गए तब उन्हें ये ज्ञात हुआ की परशुरामजी क्षत्रियो को शिक्षा नहीं देते और कर्ण ने यह कह कर परशुरामजी से शिक्षा ग्रहण करनी आरम्भ कर दी की वो क्षत्रिय नहीं अपितु ब्राह्मण है। जब उनकी शिक्षा पूर्ण होने वाली थी तब एक इन गुरु परशुराम वन में आराम करने के लिए कर्ण की जंघा को अपने सिर के निचे लगा कर विश्राम करने लगे। इतने में इंद्र ने एक बिच्छू का रूप धरा और कर्ण की जांघ में आकर अपने दंश गड़ा दिए। इस से कर्ण लहूलुहान भी उसे और पीड़ा भी अत्यधिक हुई परंतु उन्होंने गुरु की नींद न खुले इस लिए सबकुछ सहन कर लिया जब गुरु की आँखे खुली और सारा दृश्य देखा तो उन्होंने कहा की इतनी पीड़ा सहन करना किसी ब्राह्मण के वश की बात नहीं है बताओ कोण हो तुम ?कर्ण ने सब बता दिया की वो क्षत्रिय कम के है इस बात से क्रोधित होकर परशुरामजी ने कर्ण को शाप दिया की जीवन में जब कभी भी उसे सिखाई हुई विद्याओ की सबसे अधिक आवश्यकता होगी तब वो शक्तिया वो भूल जायेगा। 
  • दूसरा शाप था गौ का शाप - परशुरामजी ने शाप के बाद गुरु भक्ति से प्रसन्न होकर यह वरदान भी दिया था की शब्द भेदी बाण उनसे अच्छा कोई नहीं चला पायेगा जब एक दन आखेट के लिए निकले कर्ण को वन में झाड़ियो में कुछ हलचल दिखाई दी तो उन्होंने कोई जंगली जीव समझ कर उसपर शब्द भेदी बाण का प्रयोग क्या जिस कारण झाड़ियो के पीछे घास चरति गौ की तदोपरांत ही मृत्यु हो गई। ऐसा देख गौ का स्वामी ब्राह्मण क्रोधित हो कर बोला की तेरी मृत्यु भी इसी प्रकार से होगी जब तू निहत्था होगा और अपने जीवन के लिए लड़ रहा होगा उस समय तुझपर भी कोई दया नहीं करेगा और मृत्यु तुझे अपने पास बुला लेगी। 
  • तीसरा शाप था पृथ्वी का शाप - एक समय अंगराज कर्ण अपने राज्य अंग में भ्रमण के लिए निकले तो राह में एक बालिका को रोते हुए देख अपने रथ को रोक लिया और बालिका से रोने का करण पूछा। बालिका ने कहा की उसका घृत का पात्र उसके हाथो से छूट कर गिर गया और टूट गया है यदि वह घर जाती है तो उसकी माता उसे दण्डित करेगी इस कारण वह रो रही है। यह सुन अंगराज ने कहा की में तुम्हे दूसरा घृत अपने राज्य से दिल दूंगा तुम रोना मत। बालिकां ने कहा की नहीं उसे यही घृत चाहिए और ऐसी हठ करने लगी तब कर्ण ने भूमि से मिटटी वाला घृत उठा कर अपने दोनों हाथो की हथेलियो के मध्य रख कर जो दबाया तो अंदर से किसी के कराहने की आवाज सुन कर कारण ने हाथ खोल लिए और माता भूमि को देख कर आश्चर्य से भर गए। भूमि ने कहा की तुमने मुझे अत्यंत पीड़ा पहुचाई है जब भी तुम अपने जीवन में निर्णायक युद्ध करोगे तब में तुम्हारे रथ के पहियो को निगल कर युद्ध के परिणाम को बदलूंगी।

Saturday, 4 February 2017

भीष्म पितामह से पूर्व


महाभारत के समय कुछ महारथी ऐसे थे जो पल भर में युद्ध को समाप्त कर सकते थे परंतु प्रभु की लीला और धर्म के विमुख जाना भी उनके लिए संभव नहीं था।
इसी कारण उन्हीने अधर्म के साथ रहकर धरमः का पालन किया उन्ही में से एक महान महारथी थे भीष्म पितामह।
इनका वास्तवीक नाम देवदत्त था ये देवी गंगा और शांतनु के पुत्र थे।
एक धरती के एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्हीने अपने पिता का विवाह कराया था इनके अन्यत्र कोई भी पुत्र अपने पिता का विवाह नहीं करा पाया।
महाभारत के आदिपर्व अनुसार एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहां वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में बंधी देव गो नंदिनी पर पड़ गई। उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है।
पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों के साथ उस गाय का हरण कर लिया। जब महर्षि वसिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बात जान ली। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब सभी वसु ऋषि वसिष्ठ से क्षमा मांगने आए।
तब ऋषि ने कहा कि तुम सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। महाभारत के अनुसार द्यौ नामक वसु ने गंगापुत्र भीष्म के रूप में जन्म लिया था।ये एक वसु होने का ही परिणाम था की भीष्म ने सभी प्रकार की विद्या अपने गुरुजनो से अति शीघ्र सिख ली थी। एक बार शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगातट पर जा पहुंचे। उन्होंने वहां एक परम सुंदर स्त्री देखी। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए। शांतनु ने उसका परिचय पूछते हुए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा। उस स्त्री ने इसकी स्वीकृति दे दी, लेकिन एक शर्त रखी कि आप कभी भी मुझे किसी भी काम के लिए रोकेंगे नहीं अन्यथा उसी पल मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी। शांतनु ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा उस स्त्री से विवाह कर लिया।
समय बीतने पर शांतनु के यहां एक एक कर सात पुत्रों ने जन्म लिया, लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया। शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाएं क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी। आठवां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही हो ?
उस स्त्री ने बताया कि मैं देवनदी गंगा हूं तथा जिन पुत्रों को मैंने नदी में डाला था वे सभी वसु थे जिन्हें वसिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था। उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया। आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका। इसलिए मैं अब जा रही हूं। ऐसा कहकर गंगा शांतनु के आठवें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई। गंगा जब शांतनु के आठवे पुत्र को साथ लेकर चली गई तो राजा शांतनु बहुत उदास रहने लगे। इस तरह थोड़ा और समय बीता। शांतनु एक दिन गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि गंगा में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है। इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है।
यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका आठवां पुत्र है। इसका नाम देवव्रत है। इसने वसिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है। यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इंद्र के समान इसका तेज है।
देवव्रत का परिचय देकर गंगा उसे शांतनु को सौंपकर चली गई। शांतनु देवव्रत को लेकर अपनी राजधानी में लेकर आए तथा शीघ्र ही उसे युवराज बना दिया। गंगापुत्र देवव्रत ने अपनी व्यवहारकुशलता के कारण शीघ्र प्रजा को अपना हितैषी बना लिया।श्राप के प्रभाव से वे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहे तथा अंत में इच्छामृत्यु से प्राण त्यागे।

Wednesday, 1 February 2017

संघ : सेवा तथा त्याग (भाग २ )


संघ ने अपने नियम और संयम से आज 5 करोड़ से अधिक संघी तैयार कर लिए है इन सभी को निर्देश और शाखा को सुचारू रूप से चलने के लिए शाखा प्रमुख का शांत और कड़े निर्णय लेने वाला होना अति आवश्यक है। कुछ कार्यो को करने के लिए आयु अत्यंत महत्वपूर्ण है जैसे की बैंको में शाखा प्रबंधक की आयु 35 वर्ष से अधिक होनी चाहिए उसी प्रकार से यहाँ पर भी कुछ चरणों के बाद ही शाखा का प्रबंधन दिया जाता है। आयु से सीधा तात्पर्य ये है की यदि कोई अत्यंत क्रोधी स्वाभाव का व्यक्ति आपके सम्मुख आता है और उसकी आयु अधिक है तो वह आपकी बातो को समझ पाने में असमर्थ  होगा और आपकी आयु कम समझ कर आपकी बातो को भी नहीं सुनेगा।


संघ में सभी प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है लाठी से लेकर बंदूको तक का और ये सभी निशुल्क है।
इन सभी प्रकार के शस्त्रो का प्रयोग केवल तभी सिखाया जाता है जब व्यक्ति योग अभ्यास कर अपने चित्त को शांत कर लेता है और अपनी मानसिक प्रतिक्रियाओ पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है। यदि कोई व्यक्ति बिना योग अभ्यास के इनका प्रशिक्षण लेता है तो उस से समाज को हानि हो सकती है वह अपनी विद्या का प्रयोग किसी को हानि पहुचने या अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए भी कर सकता है।

संघ में इस विषय पर अत्यंत धयान दिया जाता है की यदि किसी भी स्वयं सेवक के साथ कुछ अशिष्ट या कोई अभद्रता होती है तो वह संयम रखे और संघ को सुचना देकर उसका क़ानूनी निपटारा हो अत्यंत ही विपरीत परिस्थितियों में ही वह हिंसा के मार्ग को अपनाये न की प्रत्येक परिस्थिति में।
सभी सेवको को सेवा करने का प्रशिक्षण दिया जाता है और सभी को संघ के अनेको कार्यक्रमो में सभी प्रकार के कार्यो में कुशलता से व्यावहारिक ज्ञान भी दिया जाता है।
राष्ट्र सेवा को सेवको के अंदर कूट कूट कर भरा जाता है किसी भी प्रकार की आपदा में चाहे वह प्राकृतिक हो या मानव निर्मित या कोई दुघटना उसमे संघ के कार्यकर्ताओ को कोई भी सेना या सुरक्षाबल सेए से नहीं रोकता।
आपदा प्रबंधन,स्वयं सुरक्षा तथा नारीसम्मान संघ के सेवक को अति सूक्षमता से सिखाया जाता है और प्रत्येक संघ कार्यरत को को इन्हें अपने जीवन में वास्तविकता से उतारने के कड़े नियमो का पालनभी कराया जाता है। 

Monday, 30 January 2017

संघ : सेवा तथा त्याग



संघ का पूर्ण नाम रसिया स्वयं सेवक संघ है इसे RSS के नाम से अधिक जाना जाता है। संपूर्ण विश्व में ये सबसे बड़ी सेवा प्रणाली है जो की बिना किसी वेतन के देश सेवा और समाज कल्याण के कार्यो में कार्यरत है। इनका मुख्य कार्य दैनिक प्रतिदिन की दिनचर्या को सुगम बना प्रत्येक जन को निरोगी बनाना है और एक शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण करना है। प्रत्येक दिन का आरंभ संघ में सुबह की वंदना से होता है वंदना में भारत माता को साक्षी मान कर यह वचन लिया जाता है की एक संघी भारत में रहने वाले प्रत्येक बंधू का सहयोग निष्काम भाव से करेगा और यदि किसी भी बंधू पर कोई विपत्ति आती है तो वह उस समय सहयोग करेगा। संघ के लोग किसी भी जाती या भरम को बड़ा या छोटा नहीं मानते ये सभी का स्वागत खुले मन और विचारो से करते है। इनकी दैनिक रीती वैदिक पद्धत्ति से होने के कारन विरोधी जन इन्हे कुछ ज्यादा पसंद नहीं करते परन्तु अपने लाखो विरोधी होने के बाद भी संघ ने देश को अत्यंत ही महानुभाव लोग दिए है।  राष्ट्र सेवा संघ की विरासत है संघ का निर्माण करने के पीछे उद्देश्य भी यही था की राष्ट्र हित में यदि कोई असामाजिक शक्ति अपना वर्चस्व दिखा कर गैर संविधानिक गतिविधियों पर जोर देती है उसका दमन करने के लिए संघ संविधानिक तरीके से अग्रसर रहेगा। संघ में दैनिक वंदना के पश्चात व्यायाम किया जाता है जो शारीरिक बल में वृद्धि के लिए है और उसके पश्चात खेलो का आयोजन होता है। खेलो के बाद दैनिक विषयो पर वार्तालाप की जाती यदि किसी को कोई मुश्किल है या किसी प्रकार का कष्ट है तो उसके निवारण के उपाय के विषय में सभी के द्वारा उनकी प्रतिक्रिया देखि जाती है। स्वतंत्रता सेनानियो और हमारे पूर्वजो के द्वारा दिए गए योगदान के विषय में चाचा की जाती है और १ घंटे की इस प्रक्रिया के बाद सभी जन अपने निवास स्थान के लिए प्रस्थान करते है यह कहकर की कल फिर मिलेंगे और भारत को स्वस्थ और सदृढ़ बनाएंगे।
भारत में किसी भी प्रकार की आपदा आने पर संघ के कार्यकर्ता बिना किसी निमंत्रण के अपना सहयोग देने पहुच जाते है चाहे वह रेल दुर्घटना हो या बूम विस्फोट या उत्तराखंड में आए बढ़ त्रासदी संघीय ने अपनी सेवा का परचम सुनामी तक में दिखाया है अपने जीवन की चिंता किये बिना ये एक प्रचारक के रूप में अपना पूरा जीवन अपने घर से दूर और अपने सेज सम्बन्धियो से धूर रह कर भी व्यतीत कर देते है। कुछ क्षेत्रो में संघ की सेवा से इतनी ग्रहण है की वह पर प्रचारको की हत्या भी करा दी गई है। संघ किसी भी धर्म या समुदाय के प्रति घृणा का भाव नहीं रखता परंतु संघ की सेवाओ से संघ के बढ़ते वर्चस्व को देख कर असामाजिक तत्वों ने इन्हें निशाना बनाना आरम्भ कर दिया है। केरल में कुछ मिशनरियो के द्वार ये अधिक है और कर्णाटक में यह अत्यधिक है. . . . . . . . . . . .

शेष भाग २

Saturday, 28 January 2017

मृत्यु शैय्या पर भीष्म


पितामहः भीष्म जब इच्छा मृत्यु का प्रण लेकर मृत्यु शय्या पर अपनी मृत्यु को रोक कर लेते हुए  थे उस समय पर भीष्म के मन में यह बात कोंध गई की मेरी इस गति का कारण क्या है?
यद्यपि मैंने इस जनम में कोई गलत कार्य नहीं किया और ना ही गलत का साथ दिया वह तो केवल अपने वचन की बाध्यता को निभा रहे थे।
फिर भी उन्होंने अपने ज्ञान से यह पता लगा लिया की कोई भी बुरा कर्म उन्हें ऐसी मृत्यु नहीं दे सकता है अवश्य ही कोई पिछले जन्म का कर्म था जो उन्हें इस अवस्था में लाया है।
जिस प्रकार से उन्होंने अपने तपोबल से रणभूमि में श्री हरि के  विराट रूप को देखा था
उसी तपोबल के प्रयोग से वो अपने पूर्व जन्मों के कर्मो को देखने में सक्षम थे।
सक्षम होना ही काफी नहीं था उनकी जिज्ञासा ही ऐसी एकमात्र वस्तु थी जिसने उन्हें पूर्व जनम देखने को विवश किया।
अपने अंतिम समय में उन्होंने सभी को ज्ञान दिया और अपने पापो को गिना यही उनके जीवन का सार है जब उन्होंने अपने कर्मो का संज्ञान लेना आरम्भ किया तब उन्हीने पाया कि कोई भी ऐसा कर्म नहीं था जिसके कारण उन्हें ऐसी गति प्राप्त हो न ही ऐसा जोई शाप लगा जिस से उन्हें मृत्यु के इतना निकट रहते हुए भी प्राण त्यागने की अनुमति ना मिले ।
स्वर्ग में स्थित शांतनु की दिव्य आत्मा ये सब देख कर रुंध गई थी और उन्होंने स्वर्ग के सभी भोग विलास ऐश्वर्या को त्याग करना आरम्भ कर दिया था और स्वयं को कोसने लगे थे की क्यों उन्होंने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया?
जिस पुत्र ने अपने पिता के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत धारण किया और राज पाठ का त्याग तक किया उस पुत्र को दिया हुआ वरदान आज शाप क्यों बन गया?जन्मो तक देख आये और थक कर स्वयं को कोसने लगे की ऐसी क्या भूल हुई के ये गति प्राप्त हुई है।
तभी जगतगुरु श्री कृष्णा का वहाँ आना होता है
प्रिय प्रभु भीष्म का मुख देख कर ही जान लेते है की उनके मन की क्या जिज्ञासा है ?
भीष्म कहते है की प्रभु ऐसी क्या गलती हुई की मुझे इस जन्म में ये गति प्राप्त हुई है ऐसा कोनसा पाप कर्म हुआ है जिसके कारण मुझे मेरे पोत्र के द्वारा ही बाणों से बिंध दिया गया गया ?
तब श्री कृष्णा ने कहा की आप अपने पूर्व जन्मो को देखने में  सक्षम है आप खुद ही देख लीजिये।
भीष्म ने कहा की मैंने अपने पिछले 100 जन्मो को देख लिया है परंतु कोई ऐसा पाप दिखाई नहीं दिया जिस कारण ये दशा प्राप्त हो।
कृष्णा जी  ने एक जनम और देखने का आग्रह किया और भीष्म ने देखा की पूर्व जन्म में वह एक प्रजाप्रिय राजा थे और उनका रथ राज्य के भर्मण के लिए जा रहा था तभी एक सैनिक आकर यह बताता है की राह में एक सर्प घायल अवस्था में पड़ा है और यदि हम आगे बढे तो उसकी मृत्यु का पाप हमें लगेगा।
राजा ने सर्प को उठा कर निकट की झाड़ियो में फेकने का आदेश दिया जिस कारन सर्प निकट की झाड़ियो में काँटों के ऊपर गिर गया और काँटों से बींधने से उसके प्राण पखेरू उड़द गए।
ये देख भीष्म के नेत्र खुलते हैं और एक प्रश्न प्रभु की और कहते है कि वो पाप तो अनभिज्ञता वश हुआ है उसका ऐसा परिणाम क्या उचित है?
प्रभु ने कहा कि पाप कितना ही छोटा क्यों न हो उसका परिणाम किसी न किसी जन्म में भुगतना पड़ता है तुम्हारे पुण्यकर्मों ने उन दंड को 100 जन्मो तक दूर रखा परंतु अंततः उसका परिणाम भुगतना ही पड़ा।
अपने कर्मो से कही नहीं भागा जा सकता है यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसके कर्म उसे और अधिक तीव्र गति से उसके पीछे आते हैं।
परमपिता ब्रह्माजी ने सभी मनुष्यो के आगे आने वाले जन्मो का जीवन उनके पिछले जन्मो के आधार पर रखा है यदि आप इस जन्म में दिव्य कर्म करेंगे तो अगले जन्म में आपका जीवन भी दिव्य होगा।

अनन्ता वे वेदा - वेद अनंत है


वेदों के विषय में आज के समय पर सभी का ज्ञान अधूरा सामान है और भारत में ये ज्ञान लगभग विलुप्त होने की राह पर है जिन वेदों ने पवन यान जलपोत और ब्रम्हास्त्र जैसी महान शक्तियों का उद्गम किया आज वही स्वयं विलुप्ति की कगार पर खड़े है।
एक अंग्रेज ने अपनी दैनिक पुस्तिका में लिखा था की राईट बंधुओ को हवाई जहाज बनाने की विधि वेदों से प्राप्त हुई थी और स्वयं भारतीय वैज्ञानिक डॉक्टर कलाम का कहना था की वेदों की बाते किसी पहेली की तरह लिखी गई है जिस से उन्हें कोई आसानी से न समझ सके।
आज पूरे विश्व के लिए " वेद " एक आश्चर्य की बड़ी पहेली बने हुए है।। वे क्या है, कितने है, उसकी रचना और संग्लन किस प्रकार किया, उनका विषय क्या है, वेदों का नाम लेते ही ऐसे प्रश्न तो सामने आते ही हैं।। जैसे ईश्वर की ही एक अबूझ पहेली हो वेद ।।
आखिर वैद है क्या??
"इस विराट विश्व की समूची सर्वांगीण यंत्रणा का ज्ञान भंडार ही वेद है "। अनन्ता वे वेदा : ऐसा वचन है ।।
इस विराट विश्व के कर्ता धर्ता, और निर्माता जो ईश्वर अर्थात  देव है , उन्ही के द्वारा यह वैद नामक ज्ञान भंडार मानव को प्राप्त हुआ है ।
कुछ लोग यह सोचते है, इस आद्यत्मिक किताब को इतिहास में क्यों स्थान दिया गया, तो ज़रा तो एक बात पर विचार करे, अनन्त कोटि ब्रह्मांड वाला यह असीम विश्व क्या अपने आप में एक चमत्कार नहीं है ? अंतरिक्ष में निराधार गोल घूमने वाली पृथ्वी को हम स्थिर और समतल समझकर जीवन बिताते है, क्या यह चमत्कार नहीं ?? जब ऐसे चमत्कारी विश्व का इतिहास ही हम लिखते है, तो सबसे पहले वेदों के अलावा और चर्चा किसी की, की भी कैसे जा सकती है ?
मगर सिर्फ इतना कहने से काम चलेगा??? नहीं, हमें और तर्क देने होंगे ।।
देव और वेद
देव और वद इन दो शब्दों पर कुछ समय के लिए धयान केंद्रित कीजिये, दोनों ही एक दूसरे के पूरक है, दीव यानि प्रकाशमान, देव वे होते है, जो स्वम् प्रकाशमान या ऊर्जा की भांति स्वम् चेतना के पुंज होते हैम देवदत्त ज्ञान भंडार - यानि वेद । अतः जो भी ज्ञानतेज जो देवो में है, उन्हें लिखित रूप से वेदों में उतारा गया है ।।
वेद हर किसी को क्यू समझ में नहीं आते ?
हाँ , यक़ीनन यह ज्ञान का भंडार है, और यह समझ में भी नहीं आते , यह सुनकर आपको थोड़ा आश्चर्य हुआ होगा, किन्तु इसमें आश्चर्य जैसी तो कोई बात नहीं, यंत्र की रचना और कार्यतंत्र को प्रस्तुत करने वाली पुस्तिका सबके समझ के बाहर होना स्वाभाविक सी बात है।। आप टीवी अपने घर लाते है, तो क्या उसे खोल के देखते है? कि वो कैसे बना, क्या क्या तकनीक इस्तमाल हुई आपको मतलब सिर्फ टीवी देखने से होता है, इसी तरह हम मान बैठे है, की वेद ज्ञान का भंडार है, बिना पढ़े ही ।। जब स्वमं आप ईश्वर का तेज पाने निकालते हो तो उसके लिए आपको सब कुछ समर्पण तो करना ही होगा, ईश्वर से मिलन के लिए नहीं, उनके जैसी श्रेष्ठता हासिल करने के लिए ।। आर्यो को ईश्वर ने अपना पुत्र कहा है, और कौन पिता नहीं चाहेगा, की उनके पुत्र उनसे आगे ना निकले इसी लिए वेदों की रचना भी हुई।

अगर वेदों का ही ज्ञान चाहिए तो, सबसे बड़ी शर्त यह है, एक ज्ञानपिसाचु व्यक्ति योगी भी होना चाहिए, जो कुछ समय के लिए ही क्यू ना हो, इस जड़ जगत की सारी चिंताओ और व्यवधानों को भूलकर वैदिक रचनाओं के चिंतन में तल्लीन और समाधिस्त हो सके ।।

आइये ।।। वेदों की और फिर से लौटे

वेद को पढ़ने का आदेश स्वमं परमपिता परमेश्वर का है ।।

महाभारत तक तो सारा विश्व ही वेदों का पाठ करता था । युद्ध के बाद इसके घटते स्वर सिर्फ भारत तक रह गए, भारत की भूमि का कुछ भाग मुसलमान खा जाने के बाद यह लघुभारत रह गया है।। और यहाँ लघुभारत में में भी वेदों की पठन की व्यवस्था नहीं की गयी । जबकि पीढ़ी दर पीढ़ी अपने कुटुंब को वेद पढ़ाने की परंपरा हमारे समाज में थी ।। वेदों से ज्ञान प्राप्त करने वालो का रहन सहन बहुत सादा था , आज भी हम हिन्दू वेद पठन को बड़ी सुद्धता से और निस्वार्थ भाव से इसका पठन करते है , और उसी परंपरा को चला रहे हैं ।।। क्या यह चमत्कार नहीं है ??

भारत में जब अंग्रेजो का प्रभुत्व था, तो यूरोपीय गोरे पादरियों ने वेदों का अनुवाद कर सारे अर्थो का अनर्थ कर दिया, वेदों का अनुवाद तो किसी भाषा में नहीं किया सकता, क्यू की एक एक संस्कृत विविध अर्थ अनुवाद करने पर वह लुप्त हो जाएंगे, और मुर्ख गोरो ने वेदों के अनुवाद को बच्चो का खेल समझ लिया । उन अधर्मियों की बातें आज भी सच्ची मानकर हमारा समाज वेदों से दूर हो रहा है ।। उन्ही की तरह हमारे आर्य भी खुद को दलित या अन्य किसी का अनुयायी बताकर खुद को राक्षसों की टोली में शामिल कर रहे है।।

Friday, 27 January 2017

दाह संस्कार क्यों आवश्यक है ?

हिन्दू पद्धत्ति के अनुसार मनुष्य के मरने के पश्चात उसके पार्थिव शरीरी को अग्नि के सुपुर्द कर उसे नाशवान किया जाता है कुछ जिज्ञासुओ का ये मनना है की ऐसा करना गलत है और ऐसा करने से कोई लाभ नहीं है। परंतु ऋषियों - मुनियो की इस भूमि को उनके कुतर्कों की कोई आवश्यता नहीं है पुरातन समय से हमारे पूर्वजो ने हमारी दिनचर्या में ऐसी आदतों को गढ़ा है जिसने आज हम अंधविश्वास कह कर टाल देते या कुतर्कों से उनका खंडन किया जाता है। समय जानो को इन बातो का ज्ञान न होने के कारण उन्हें अपने धर्म के मार्ग पर चलने में या तो कठिनाई होती है या फिर वो धर्म के विषय में चर्चा करने से घबराते है।
विषय है की अंतिम संस्कार दाह संस्कार ही क्यों है ?
जल में प्रावह कर या भूमि में दबा कर भी किया जा सकता है।
 तर्क यह है की यदि हम जल में शव को प्रवाहित करेंगे तो जल दूषित होगा तथा यदि हम भूमि में दफ़न करेंगे तो भूमि दूषित भी होगी और एक समय ऐसा आएगा की सभी जगह शवो का ढेर बना होगा इस करण शव् को जलना ही उचित है परंतु जलने का अर्थ मिटटी तेल या कोई और ज्वलनशील पदार्थ से जलने से नहीं है।
कई बंधू लोग अंतिम संस्कार रीती में गए होंगे उन्हें पता होगा की शव् को जलाते समय उसपर काफी प्रकार की सामग्रियों का डाल कर दाह क्रिया को संपन्न किया जाता है  सभी सामग्रियों का प्रयोग वातावरण को शुद्ध करने के लिए किया जाता है जिस से आस पास की वायु को नुक्सान ना हो वायु प्रदुषण ना हो।

हम सभी परमेश्वर को "भगवान्" के नाम से जानते है यदि इसका संधि विच्छेद किया जाये तो हमें एक शब्द भ+ग+व+आ+न  प्राप्त होगा ये वही पञ्च तत्त्व है जिनसे हमारे भौतिक शरीर का निर्माण हुआ है।
भ से भूमि,ग से गगन,व से वायु, आ से आकाश और न से नीर मरणोपरांत हमारे शरीरी को इन्ही पञ्च तत्वो में विलीन किया  जाता है।

अग्नि,वायु,आकाश तथा भूमि तो हमें दाह संस्कार से मिल जाती ही  तथा उस से जगत का कल्याण वायु की शुद्धि कर किया जाता है अंतिम चरण होता है अवशेषो को जल में विलीन करना जो राख और हड्डिया पानी में डाली जाती है  उन से पानी में कैल्शियम  कमी दूर होती है और राख पानी में मिलने से जिस भी खेती की भूमि में जाता है वह भूमि उपजाऊ होती है।
पानी में कैल्शियम की वृद्धि से मछलिया ज्यादा होती है और जलचर प्राणी वृद्धि करते है जिस से जल का शुद्धिकरण होता है मछलिया जल की गन्दगी को ग्रहण  जिस  मल का त्याग करती है उस से जल की वनस्पति को खाद प्राप्त होती है।
दाह के समय जिन जड़ी-बूटियों का प्रयोग किया जाता है उनसे बदलो में भारीपन होता है और वो बरसने के लिए त्तपर होते है आज के समय पर कृत्रिम वर्षा भी इसी ज्ञान को धयान में रख कर कराइ जाती है।





Thursday, 26 January 2017

विश्व नायक (नरेन्द्र मोदी अथवा डोनाल्ड ट्रम्प)

आज के समय पर विश्व पटल पर 2 ही नामो की केवल चर्चा है और वो दोनों राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले शक्तिशाली व्यक्ति है। भारत को एक दब्बू देश से एक सिंह की दहाड़ बनाने वाले देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का अत्यंत ही महत्वपूर्ण योगदान है यदि भारत आज के समय पर विश्वगुरु बनाने की हुंकार भारत है तो उसका श्रेय केवल मोदी जी को जाना है। अमेरिका से सम्बन्ध पहले से अधिक अच्छे बनाने ओ बराक ओबामा को अपने छोटे भाई की तरह स्नेह से गले लगाने वाले प्रधान मंत्री भारत के ही है उनके अन्यत्र कोई भी ऐसा नहीं है जिसने अमेरिका के राष्ट्रपति को निकट से स्पर्श करने का भी प्रयास किया हो। 
आर्थिक मंदी  के समय भारत में आने का बराक ओबामा का निर्णय अपने नागिको के लिए सहूलियत प्राप्त करना था की उनके व्यवसाय को कोई हानि नहीं होगी और न ही उन्हें नोकरियो से  निकाला जायेगा परंतु अभी उनके भारत आने का अर्थ आर्थिक नहीं मानसिक था। मित्रता के लिए ओबामा ने  1 वर्ष में 2 बार भारत की राजनितिक यात्रा की और मोदी जी के साथ बैठकर चाय की चुस्कियो से साथ ठहाके भी लागए। 
परन्तु अब समय बदल चुका है अब समय ट्रम्प का है जो दिन प्रतिदिन और भी शक्तिशाली होता जा रहा है अमेरिका ने अपनी जो साख खो दी थी एक गरम रवैये वाले देश से नरम रवैये वाला देश बन गया था वह अब वापस आ रही है ट्रम्प का सीधे शब्दो में मुस्लिम समुदाय को चुनोती देना और गैर अमेरिकी नागरिको को धमकाना साफ़ कर देता है की ये एक कठोर फैसले लेने वाला राष्ट्रपति है इनसे कोई अपनी गलतियों को क्षमा के भूल न ही करे तो ठीक होगा। 
जिस प्रकार से ट्रम्प ने अपने भाषणों में भारत और हिंदुत्व की विवेचना की थी उस से देख कर तो यही प्रतीत होता है की भारत की तरफ अमेरिका का रवैया अभी भी मित्रता वाला रहेगा और पकिस्तान को अभी अपने कान खीचने में भी भलाई है अन्यथा जिस प्रकार रूस प्रत्येक दिन आतंकियों का सफाया कर रहा है उसी अकार से कही एक दिन ऐसा ना आ जाये की पकिस्तान को अमरीका अपने कब्जे में कर वहां पर एशिया महाद्वीप कर नजर रखने वाला क्षेत्र बना दे ऐसी पेशकश वो भारत को भी दे चुका है क्योके उसे ज्ञात है की चीन एक बड़ा प्रतिद्वंदी है हथियारों में अमेरिका का और उसपर कब्ज़ा करना इतना सरल नहीं है न ही क्षेत्रफल से न ही बल से। 

Wednesday, 25 January 2017

गणतंत्र दिवस

भारतीय  संविधान २६ जनवरी १९५० को भारत में लागु  हुआ। 
 संविधान सभा ने संविधान को २ वर्ष ११ माह १८ दिन अर्थात सितंबर १९५० को ही संविधान बनकर तैयार हो गया था परंतु उसे लागु करने में इतना समय क्यों लगा ?
इसका उत्तर हमारे इतिहास में छिपा है। स्वतंत्रता संग्राम के समय पर भारतीय स्वतंत्रता सेनानियो ने २६ जनवरी १९४७ के दिन को स्वतंत्र भारत का दिन घोषित किया था परंतु इस दिन भारत को स्वतंत्रता करा पाना संभव ना हो सका और भारत को अंग्रेज मुक्त १५ अगस्त १९४७ को कहा गया। ऐसी स्तिथि में स्वतंत्रता दिवस को २६ जनवरी तक लेकर जाना संभव नहीं था इसी कारण से भारत के संविधान को इस दिन लागु किया गया। 
संविधन लागु करने का सीधा तात्पर्य ये था की जो क्रांतिकारियों द्वारा दिन का महत्त्व रखा गया था उस दिन का महत्त्व आगे भी बना रहे। 
इस दिन राजपथ पर शौर्य प्रदर्शन किया  जाता है जो यह दर्शाता है की अब हम अपनी शक्ति को सही रूप से प्रदर्शित करने में सार्थक है केवल शक्ति होना ही प्रयाप्त  का सही प्रयोग भी  आवश्यक है। 
 भारतीय सेना किसी भी सेना से यदि युद्ध  करती है तो युद्ध के उपरांत विपरीत सेना के शवो को आदरपूर्वक विपरीत देश को सोंपा जाता है ये युद्ध की नीति है की किसी भी सैनिक के पार्थिव शरीर का अपमान न हो। 
"हिटलर में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय कहा था की यदि जर्मनी के पास भारतीय सेना होती हो में इस युद्ध का निर्णय जर्मनी के पक्ष में होता"
कारगिल युद्ध के समय भारतीय सेना की "राजपूत रेजिमेंट"का शौर्य देखते ही बनता था जब अपने से अत्यधिक मजबूत स्थिति में बैठी पाकिस्तनि सेना को उन्होंने पहाड़ी के ऊपर जाकर भी मार था और भागते हुए पाकिस्तानी सैनिको को ये कहकर नहीं मारा था की हम भगोड़ो से युद्ध नहीं करते। 
चीन युद्ध के समय जब भारतीय सेना के पास हथियार नहीं पहुच पाए थे उस समय पर सेना ने अत्यंत शोर्य दिखाते हुए  आगे बढ़ कर अपनी बंदूको को तोड़ कर फेक दिया और बन्दूक की संगीनों को निकाल कर २०-२० चीनियों को ईश्वर के निकट भेज वीरगति को प्राप्त किया उस समय चीन अमेरिका और रूस के दर से कम भारतीय सेना की वीरता से अधिक थरथरा उठा था और अपने कदमो को भारत में आने से रोकने पर विवश हो गया था। 

गणतंत्र दिवस : 26 JANUARY



भारत देश में गणतंत्र दिवस को हिंदी में पूर्त्य कुछ ही लोग जानते है इसका  वास्तविक नाम या तो 26 जनवरी या REPUBLIC DAY के नाम से जाना जाता है इसमें हमारा कोई दोष भी नहीं है क्योकि जब विद्यालयों में आज के समय पर पाश्चात्य सभ्यता के अनुरूप पढाई लिखाई और अन्य कार्य किये जा रहे है तो संभावित है की हम हिंदी को पूर्णतया या तो त्याग दे या अंग्रेजी को पूर्णतया अपना लें।
भारत में अंग्रेजी का प्रचलन प्रचलन 1857 की क्रांति के पश्चात अधिक हुआ उसके पीछे का कारण ये रहा की अंग्रेजो ने जब पहली क्रांति का दमन किया तब उन्होंने क्रांति होने के कारण का गहन किया और उस अध्यन्न का नतीजा  निकल  आया की जब इस क्रांति को करने के पीछे महीनो का कार्य था लेखको ने लेखों द्वारा ही भारत के लोगो में नई जान फूकि थी और अपनी कविताओ और भाषणों के द्वारा छोटे छोटे राजाओ पर व्यंग , कटाक्ष और मातृभूमि की दशा को बता कर उनके मन में क्रांति के भाव उत्पन्न कर दिए थे।
एक प्रकार से भारत में रहने वाले हर व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार से क्रांति से भाषा के द्वारा जोड़ा जा रहा था तब अंग्रेजो ने अपनी रणनीति बदली और भारत से हिंदी को विलुप्त करने का अपना प्रयास आरम्भ कर दिया उस समय के एक अंग्रेज ने अपनी किताब में लिखा था की भारत को जब तक नहीं जोड़ा जा सकता जब तक की उसकी भाषा को नहीं जोड़ा जा सकता।
अपनी पहली रणनीति "फुट डालो राज करो" में सजग सफलता के बात अंग्रेजो ने दूसरी रणनीति पर काम करना आरम्भ किया और वो अपनी रणनीति में सफल भी रहे।
आज के भारत में अगर हम किसी भी प्रदेश में निकल जाये तो वहां पर पूर्णतय हिंदी बोलने और सझने वाले लोग नदारद है.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली जैसे क्षेत्र में अंग्रेजी में बात करना एक आवश्यकता बन गई है और जैस हवा और पानी कोई भी व्यक्ति हिंदी में बात करना आज अपमान क्यों समझ रहा है ?
जापान,चीन,रूस,जर्मनी और फ्रांस जैसे विकसित देशो में अंग्रेजी की कोई भी पुस्तक पढ़ाना या फिर अंग्रेजी की तरफ कोई भी लुभावन होना बिलकुल नहीं है।
 जापान और चीन जैसे देशो में बच्चो को अंग्रेजी पढना गैर क़ानूनी है और ये देश अपनी संस्कृति के प्रति गौरवान्वित भी है। इन्हें गर्व है स्वयं के जापानी होने पर  और चीनी होने पर।
जापान के लेखक ने भाषा के विषय में कहा है की "यदि आप अपने देश को गौरवान्वित करना चाहते है तो अपने बच्चो को मातृभाषा की शिक्षा दीजिये अन्यथा वो कभी भी राष्ट्रभक्त नहीं बन पाएंगे। देश की आत्मा मातृभाषा में है उसका प्रयोग करें "

Tuesday, 24 January 2017

नरेंद्र तथा नरेंद्र मोदी


जीवन में कभी ऐसे क्षण आते है जो हमें सोचने पर विवश कर देते है की अगर ऐसा ऐसा किया होता तो आज में कहा पर होता।
ऐसे ही कुछ वृतांत कहे जाते है हमारे राष्ट्र नायक नरेंद्र मोदी के विषय में जो की आज के समय पर एक अति विलक्षण प्रतिभा के ज्ञाता है।
वाक्पटुता कुछ लोगो ने तो ऐसा शब्द भी नहीं सुना होगा लेकिन हिंदी भाषा के अंदर ऐसे शब्दो का भण्डार है। पुरातन काल से ही इस विधि का प्रयोग राजनायकों द्वारा किया जाता रहा है जो की हमारे पूर्व प्रधान मंत्री जी को नहीं आता था उन्होंने तो साक्षात् ये भी कह दिया था की "मेननू इंदी नी ओंदी सी" एक ऐसा अर्थशास्त्री जिसने अपने ज्ञान से भारत को मजबूती दी उसी ने राष्ट्र को एक गूंगापन भी प्रदान किया।
यहाँ नरेंद्र का अर्थ एक साधारण बालक से है जो की बाद में गुजरात का मुख्यमंत्री बन कर नरेंद्र मोदी बना उसके बाद भारत का प्रधान मंत्री बन वो मोदी बना। इस काल में उन पर काफी आरोपो का भी रोपण हुआ पर अभी तक की समाचार सूचनो के अनुसार तक तो उनके प्राणों की भी कोई संभावनाएं नहीं है
विरोधियो ने पास के शत्रु देशो तक से सहायता की गुहार कर ली है।मोसाद जैसे संगठनों ने भी भारत को इस विषय में सचेत किया है।अभी तो केवल 2019 की प्रतीक्षा है।
किसी भी कला में महारथ प्राप्त करने को पटुता कहा जाता है कुछ लोगो में ऐसा प्रतिभा जन्म से होती है और कुछ लोगो में ये प्रतिभा अभ्यास से आती है नरेंद्र मोदी के विषय में ये दोनों ही संभावित है। पहले वो संघ के प्रचारक रह चुके है तो संभावित है कई स्थानों पर उन्होंने अपनी सेवाएं भी दी होंगी और उन्ही से उन्हें कुछ अभ्यास भी आया होगा और उसके बाद वो मुख्यमंत्री भी रहे है जिसके लिए वो अत्यधिक लोगो से मिले-जुले होंगे ये अभ्यास का ही एक रूप है। यद्यपि हम किसी व्यक्ति से पहली बार मिलें परंतु उसी प्रकार के व्यक्ति से अगर हम पहले भी मिले है तो हम उस से बात करने में झिझक कम होगी ऐसा सामान्यतः INTERVIEW के समय पर देखा भी जाता है।
किसी ही देश का प्रधान सेनापति यदि वाक्पटुता में पारंगत नहीं होगा तो वो समस्याओ को सुलझा नहीं पायेगा उसके विपरीत उसके गलत शब्दो का चयन उसे समस्याओ में अधिक घेर सकता है प्रचीन समय से ही ऐसे लोगो को राजनयक बनाने की परंपरा रही है जैसे की बीरबल,मानसिंह,उदल और बाजिराओ बल्लाड।
ये सभी अपने शब्दो को संयम से प्रयोग करने में महारथी थे।
जीवन के अनुभव - छोटी उम्र में चाय बेचना माता को लोगो के घरो में बर्तन मांजते देखना और घर की गरीबी से बुरी हालात ये सभी चीजे किसी कमजोर ह्रदय वाले व्यक्त को तोड़ सकती है लेकिन जिनका ह्रदय फौलादी होता है वो इन्हें अपने राह की अड़चन की जगह साहस का औजार सझते है।
हिटलर ने एक समय दिवार को पोतते समय कहा था एक दिन में इस देश का राजा बनूँगा और उसने वो अपनी दृढ इच्छा शक्ति से कर दिखाया।
ऐसा ही मोदी जी के साथ भी था उन्हने कहने से अधिक करने पर भरोसा किया और आज के समय कर नोटबंदी का फैसला बिना किसी पूर्व न्योजित कार्यक्रम के कर दिखाना उनकी इच्छा शक्ति का ही प्रमाण है।

Saturday, 21 January 2017

उद्धव गीता



उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने *अवतार काल* को पूर्ण कर *गौलोक* जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा-
"प्रिय उद्धव मेरे इस 'अवतार काल' में अनेक लोगों ने मुझसे वरदान प्राप्त किए, किन्तु तुमने कभी कुछ नहीं माँगा! अब कुछ माँगो, मैं तुम्हें देना चाहता हूँ।
तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी।
उद्धव ने इसके बाद भी स्वयं के लिए कुछ नहीं माँगा। वे तो केवल उन शंकाओं का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थीं।
उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-
"भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नहीं समझ पाया!
आपके 'उपदेश' अलग रहे, जबकि 'व्यक्तिगत जीवन' कुछ अलग तरह का दिखता रहा!
क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?"
श्री कृष्ण बोले-
“उद्धव मैंने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह *"भगवद्गीता"* थी।
आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तुम्हें उत्तर दूँगा, वह *"उद्धव-गीता"* के रूप में जानी जाएगी।
इसी कारण मैंने तुम्हें यह अवसर दिया है।
तुम बेझिझक पूछो।
उद्धव ने पूछना शुरू किया-
"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?"
कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, मदद करे।"
उद्धव-
"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे। आजाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।
कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा!
आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक सकते थे!
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया, और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे!
अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे!
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!
लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?
उसे एक आदमी घसीटकर हॉल में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है!
एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?
बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा?
क्या यही धर्म है?"
इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!
उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।
भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।
यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।"
उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।
जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह-
उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!
क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर-
*'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम'*-
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।
जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"
उद्धव बोले-
"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई!
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"
कृष्ण मुस्कुराए-
"उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।
मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।
यही ईश्वर का धर्म है।"
"वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?"
उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!
तब कृष्ण बोले-
"उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो! धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?"
भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले-
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। 'प्रार्थना' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी 'पर-भावना' है। मग़र जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि 'ईश्वर' के बिना पत्ता भी नहीं हिलता! तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।
गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।
सम्पूर्ण श्रीमद् भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास हुआ, वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!
यह अनुभूति थी, शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!
तत-त्वम-असि!
अर्थात...
वह तुम ही हो।।

Tuesday, 10 January 2017

नरेंद्र मोदी : उत्तर प्रेदेश भाजपा


अभी उत्तर प्रदेश में राज्यसभा के चुनावो की जंग जारी है और इस दौड़ में 3 पार्टिया सबसे आगे हैं।
1.भाजपा
2.सपा
3.बसपा
तीनो के वोटो की संख्या इनके क्रमानुसार ही है यव तीनो ही दल उत्तर प्रदेश का भविष्य निर्धारित करेंगे इनके अन्यत्र कोई और दल उत्तर प्रदेश में नहीं आ सकता है कोंग्रेस का दमन तो लोकसभा के समय से ही हो चूका था अब तो बस वो एक निशान बन कर रह गई है कई क्षेत्रो में तो इन्हें अपनी जमानत भी बचानी भारी पड़ सकती है।
जिस प्रकार से आम आदमी पार्टी के कुमार विशवास ने अमेठी से जितने का दम भरा था और फिर वो अंत में जाकर अपनी जमानत भी न बचा पाये थे वाही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ होने वाला है।
भाजपा का जितना आवश्यक है क्योकि भाजपा के नेताओ की अब काम करने की इच्छा है और उत्तर प्रदेश ऐसा प्रदेश है जहा पर यदि कोई काम करता है तो उसे उसके अनुसार वोट भी मिलते है।
जैसा की पिछले चुमावो में देखा गया था की मायावती और अखलेश यादव ने जो भी कार्य किये थे सब अपनी बिरादरी के लिए किये थे।उत्तर प्रदेश में अखलेश यादव ने कोई ख़ास विकास तो किया नहीं क्योके वो भी मनमोहन सिंह की तरह ही कठपुतली है अपने पिताजी के और ये केवल दिखावे के मुख्यमंत्री है इनके सभी निर्णय दबाव में होते है और इन निर्णयों से जनता को अत्यधिक नुक्सान झेलना पड़ता है।
पिछले दिनों जब दुर्गा नागशक्ति जैसी IPS अफसर ने अवैध मस्जिद निर्माण पर रोक लगाई तो अखलेश यादव ने उनका हो तबादला करा दिया और उसकी जगह पर एक आलीशान मस्जिद का निर्माण सरकारी पैसे से करा दिया जिस प्रकार मायावती ने सरकारी धन का प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए किया उसी प्रकार से अखलेश यादव अपनी वोटो में वृद्धि के लिए मुस्लिमो को लुभावन देने के लिए सरसरकारी खजाने का दुरूपयोग करते दिखाई दे रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में जब बसपा की सरकार थी तब भी स्वर्णो की वही हालत थी और जब सपा की सरकार आई तब स्वर्णो भी स्वर्णो की वही हालात है परंतु बसपा के आने पर दलितों को स्वर्ण जैसा अनुभव कर ही दिया था परंतु चार दिन की चांदनी कब तक टिक पाती?
सपा ने आते ही सबसे पहला काम दलितों को सभी उच्च सरकारी पदों से हटा कर उन्हें कही दूर भेज दिया और उन स्थानों पर यादवो की भर्ती आरम्भ कर दी और 5 वर्षो में सभी ऊँचे पदों पर यादवो का बोल बाला हो गया है ।
आज के समय पर उत्तर प्रदेश सरकारी विभाग जो यादवो का गढ़ माना जाता है में भाजपा का जितना चिड़िया की आँख में निशाना लगाने जैसा है।भले भी भाजपा नरेंद्र मोदी जी को अपना मुख्या चहरा बना कर चुनाव लड़ रही है परंतु इसमें भी जोखिम तो है ही ।भाजपा के लिए इस स्थिति में चुनाव के नतीजे अपने पक्ष में निकलने का एकमात्र साधन नरेंद्र मोदी जी ही है।
अगर लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखा जाये तो चुनाव के नतीजे भाजपा के पक्ष में अधिक है परंतु समय का फेरा बिहार की याद भी दिलाता है।